कविता - रोहित आनंद

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दुर्गा हो या काली हो,

अरे दुर्गा हो या काली हो।।

या हो कोई पंडित या ज्योतिष रे,

या हो कोई पंडित या ज्योतिष रे।।

इनके लिए अब मेरा श्रद्धा नहीं है,

नहीं है भाई नहीं है।।

दुर्गा हो या ज्योतिष हो,

याहू कोई बड़े पंडित।।

इनके लिए अब मेरा कोई श्रद्धा नहीं है,

श्रद्धा नहीं भाई श्रद्धा नहीं है।।

और मैं नहीं मानता जात-पात को,

जात पात को भेदभाव को।।

नहीं मानता नहीं मानता,

नहीं मानूंगा मैं नहीं मानूंगा।।

राम और सीता को कि राम और सीता को,

राम और सीता को कि राम और सीता को।।

सारे लोग कहे अवतारी हैं ये,

अवतारी हैं ये अवतारी हैं।।

में इनको क्यों पुजूं ,

अरे मैं इनको क्यों पुजूं।।

मेरे छीने का अधिकार हैं ये,

छीने का अधिकार हैं।।

ईश्वर के अवतारों में,

नहीं है कोई मेरा विश्वास।।

नहीं है कोई विश्वास,

ईश्वर के अवतारों पर।।

जहां ना कोई प्रेम हो,

जात पात हो सबसे ऊपर।।

कि जहां ना कोई प्रेम हो,

भेदभाव हो सबसे ऊपर।।

उस धर्म में रहना,

अब हो गया है मुश्किल।।

अब हो गया है मुश्किल,

अरे अब हो गया है मुश्किल।।

बौद्ध धर्म में है भेदभावहीनता ,

इसको मैं अपनाऊंगा।।

इसको मैं अपनाऊंगा,

इसको मैं अपनाऊंगा।।

अब इस धर्म को छोड़कर,

मैं श्रमण धर्म में जाऊंगा।।

जाऊंगा मैं श्रमण धर्म में जाऊंगा,

श्रमण धर्म में जाऊंगा।।

भगवान बुद्ध नहीं थे कभी विष्णु के अवतार,

कभी नहीं थे राम लक्ष्मण के अवतार।।

सभी को फुसलाने का,

ये झूठा है खबर।।

ये झूठा है खबर,

ये झूठा है खबर।।

अनुग्रह, स्नेहभाव, इंसानियत है,

उस धर्म का सार।।

उस धर्म का सार,

जिस धर्म के संस्थापक हैं बुद्ध।।

श्रमण धर्म में होती है,

नई हयात की शुरुआत।।

नई हयात की शुरुआत

अरे नई हयात की शुरुआत।।

नहीं पूछे कोई कौम हमारा,

नहीं पूछे कोई कौम।।

ये उस धर्म का सार है,

जिस धर्म में कोई एक धर्म नहीं है।।

हिंदू, मुस्लिम सिख और ईसाई ये सारे धर्म है उस धर्म में,

जिसका नाम है श्रमन धर्म।।

- रोहित आनंद, मेहरपुर, बांका, बिहार