कविता - जसवीर सिंह हलधर

मिला खून माँटी उगाता हूँ दाने ,यही साधना मैं इसी का पुजारी !
नहीं धूप देखूँ नहीं छांव देखूँ ,पड़े पाँव छाले नहीं है सवारी !!
न बेटा पढ़ा है न बेटी पढ़ी है ,नहीं आड़ कोई न कोई बसेरा !
मरूँ भूख से या चवा जाय कर्जा ,नहीं रात देखूँ न देखूँ सवेरा !
न देखूँ उजाला न ओढा दुसाला ,फिरूँ रात भागा यही काम मेरा !
चहूँ ओर नागों कि बस्ती बसी है ,मुझे जो बचा ले न आया सपेरा !
करूँ आत्म हत्या कि बाघी बनूँ मैं ,बता दो तरीका पटे ये उधारी !
मिला खून मांटी उगाता हूँ दाने,यही साधना मैं इसी का पुजारी !!1!!
यहाँ कर्ज से कौन जीता कहाँ है ,यहाँ भूख से कौन हारा नहीं है !
न नेता न मंत्री न कोई मिला है ,पड़ा आन सूखा सहारा नहीं है !
उगा के भी सोना हुए भाव मिट्टी ,फसा बीच धारा किनारा नहीं है !
न आँसू न आहें न कोई गिला है ,भले ही यहाँ पै गुजारा नहीं है !
बचा लो मुझे या चढ़ा डाल शूली ,धरा का पुजारी नहीं मैं भिखारी !
नहीं धूप देखूँ नहीं छाँव देखूँ ,पड़े पाँव छाले नहीं है सवारी !!2!!
करूँ काम खेती नहीं भीख माँगूँ ,कुआ रोज खोदूँ पिऊँ रोज पानी !
चिता लेट जाऊँ कहीं भाग जाऊँ ,न दाना न पानी यही है कहानी !
कभी ना मिला दाम पूरा हमें तो ,नहीं रास आयी न भाती किसानी !
बता दोष मेरा बता बे इमानी ,न आया बुढ़ापा जली है जवानी !
चलें दाव सारे न कोई दयालू ,फसा जाल पंक्षी तने हैं शिकारी !!
मिला खून मांटी उगाता हूँ दाने,यही साधना मैं इसी का पुजारी !!3!!
लुटा पाग मेरा किसानी लबादा ,फटी पाग देखूँ कि वादा निभाऊँ !
फसी नाव मेरी फिरूँ बे सहारा , फटी एक धोती ये धोऊँ सुखाऊँ !
कभी रोग खाये कभी बाढ़ आये ,लुटा आशियाना कहाँ से बचाऊँ !
लगाते जो नारा न देते सहारा , वही खेत खाये किसे यह बताऊँ !
घना है कुहासा बना हूँ तमासा , उड़ा फूंस छप्पर गिरी है अटारी!
नहीं धूप देखूँ नहीं छाँव देखूँ ,पड़े पाँव छाले नहीं है सवारी !!4!!
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून