कविता - अनुराधा पाण्डेय

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आज लो! मैं कैद करती ,

लेखनी से उन क्षणों  को।

जब अचानक निज करों से,

मुग्ध मैं अलकेँ हटाकर

एक शरमाई नजर से

हो सजग तुझको निहारूँ।

प्रेम रंजित नैन मेरे,

नैन से तेरे मिलें  जब

तब मदन ! तुम मग्न होकर,

बढ त्वरित निज उर लगाते।

ताप अधरों का शमन कर

कान में कुछ बुदबुदाते ।

मैं सिहर जाती छुवन से ,

बद्ध उर मृदु साज बजते।

और जग मैं भूल जाती।

काँपते तुम निज अधर से

मौन सकुचाए अधर पर।

नैन से नैना मिला मृदु ,

रात की सौगात रचते।

फिर लगे मानो मदन! तुम ,

स्वर्गमय बरसात रचते।

उष्णता तेरे अधर की

छू गयी जब धड़कनों को।

क्या बताऊँ किस तरह से

थामकर अहसास रक्खा।

लग रहा था मूर्त उर में,

हो रचा मधुमास जैसे।

हारकर धड़कन प्रिये जब ,

लाज वश पीछे हटी मैं।

खींच कम्पित गात तुमने

भर लिया परिरम्भ में तब।

खो गयी परिरम्भ में प्रिय,

कर दिया सर्वस्व अर्पण।

तब समर्पण की ऋचाएं

पढ़ लिया तेरे नयन ने।

फिर तुम्हारी मृदु छुवन भी ,

लिख गई अगणित ऋचाएँ।

मैं पिघल आवेश में प्रिय!

श्वास में घुलती रही फिर।

स्वेद बूंदे तब तुम्हारी,

आ गिरीं मेरे ग्रिवा पर।

पी अधर से स्वेद बूंदे।

प्यास जन्मों की बुझाई।

एक क्षण को हो विलग प्रिय!

फिर नए आवेश से तुम।

नेत्रजालों में उलझकर,

दो कदम आगे बढ़े तुम।

अर्ध निमीलित नैन अपने

डूबकर  इक दूसरे में ,

नव ऋचा गढ़ने लगे थे।

मन अजंता सा हुआ प्रिय !

धड़कनें पढ़ने लगे थे।

दीप की पावन शिखा भी,

नेह की सम्बल बनी थी।

उर्मियाँ भी देह की तब

व्याकरण रचने लगी थी।

प्रीत के अनुवाद का प्रिय!

मृदु शिखा साक्षी बनी थी।

एक उस क्षण में प्रिये हम,

जन्म सौ सौ जी लिए थे।

प्यार का प्रिय यह रसायन

अनवरत बढ़ता रहेगा

हर घड़ी हर पल प्रिये अब

चित्त में चढ़ता रहेगा।।

- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली