नारी - झरना माथुर

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नारी होने का भी एक अजब एहसास है,

इसकी संपूर्णता का सफर बहुत खास है।

मुहब्बत, ममता जैसे जज्बातों से भरी हूं,

सृजनकारी हूं, फिर भी, आज अधूरी हूं।

पीहर से ससुराल तक  मैं पराई रही हूं,

अपने में अपने को ही बस ढूंढती रही हूं।

जब भी जहां, तब मुझसे खेला गया, रौंदा गया,

इस पुरुष समाज में मुझको हर पल तोला गया।

 बात इन पुरुषों तक ही सीमित कब तक थी ये,

 सास, बहू , नंद, भाभी में भी छली है ये।

 आज कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हूं,

और गिद्धों की गंदी निगाहों से बच रही हूं।

कर्तव्यों में बंध अपने को बढ़ाया है,

 आज चांद पे अपना चंद्रयान पहुंचा है।

मां,बहू, बहन, पत्नी, भाभी में मैं बटती रही,

 संपूर्ण जीवन अपने को सिद्ध करती रही।

क्या चाहती हूं, क्या मन में है, जानती नहीं,

 इस जीवन में अपनी कोई कहानी नहीं।

 अधिकारों के लिए जब-जब आवाज उठाई,

 समाज के डर से अपनी ही लाज बचाई।

- झरना माथुर, देहरादून, उत्तराखंड