मन की खिड़की - सुनील गुप्ता

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खोल दें

मन की खिड़की,

और बहने दे हवाएं फिर से   !

क्यूँ बंद पड़ें हैं, दरीचे कब से....,

अब तो, इन्हें खोल के बाहर झाँक लें !! 1 !!

कब से

यूँ बैठे तन्हा,

और हाथ पे हाथ धरे हुए  !

चल, अब उठें और खोल दें, झरोखे .....,

और चलें उड़ते मनव्योम पे खिले हुए !! 2 !!.

फिर से

मन आँगन में,

आने लगें हैं, विहंग पक्षी सभी  !

चलो, करलें इनसे मन की बातें.....,

और बाँटलें मन के सुख-दुःख गम सभी !! 3 !!

उजाले

आने लगे फिर से,

खोलें हैं जबसे ये, जालार हमने  !

अब तो, खेलने लगीं है नित्य रोशनियाँ...,

और लगें हैं पुनः सजने मन के मेले !! 4 !!

अँधेरे

साथ नहीं देते,

जब तक, गवाक्ष बंद नहीं होते  !

चलें सदैव खोलते मन की खिड़कियाँ ...,

और चलें जीवन में ऊँची परवाज़ भरते !! 5 !!

सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान