मन की खिड़की - सुनील गुप्ता
Jun 8, 2024, 22:52 IST
| खोल दें
मन की खिड़की,
और बहने दे हवाएं फिर से !
क्यूँ बंद पड़ें हैं, दरीचे कब से....,
अब तो, इन्हें खोल के बाहर झाँक लें !! 1 !!
कब से
यूँ बैठे तन्हा,
और हाथ पे हाथ धरे हुए !
चल, अब उठें और खोल दें, झरोखे .....,
और चलें उड़ते मनव्योम पे खिले हुए !! 2 !!.
फिर से
मन आँगन में,
आने लगें हैं, विहंग पक्षी सभी !
चलो, करलें इनसे मन की बातें.....,
और बाँटलें मन के सुख-दुःख गम सभी !! 3 !!
उजाले
आने लगे फिर से,
खोलें हैं जबसे ये, जालार हमने !
अब तो, खेलने लगीं है नित्य रोशनियाँ...,
और लगें हैं पुनः सजने मन के मेले !! 4 !!
अँधेरे
साथ नहीं देते,
जब तक, गवाक्ष बंद नहीं होते !
चलें सदैव खोलते मन की खिड़कियाँ ...,
और चलें जीवन में ऊँची परवाज़ भरते !! 5 !!
सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान