मेरी कलम से - मीनू कौशिक

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ये  बैरागी  मन  अपना  भी , राग-रंग  में  कब  रमता  है,

दुनिया  की  बेदर्द  महफ़िलें, ज़ख्मी ज़श्न कहाँ जमता है।

दोस्त क़रीबी  सब समझाते , कुछ तो  सीखो दुनियादारी,

पागल दिल किसकी सुनता है ,चढ़ी है जाने कौन खुमारी।

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कौन  है  अपना  कौन  पराया ,  झूठा  है  जंजाल  ये   सारा,

छोड़  कपट जो  मिले  नेह  संग‌ , साथी  ‌है वो  सबसे  प्यारा ।

तथाकथित  अपनों   की  आँखें , जाल  बिछाए   बैठी   हैं ,

छोड़  लड़कपन  सही  परखले , जीवन  नहीं  मिले  दोबारा ।

️.. मीनू कौशिक "तेजस्विनी", दिल्ली