जीवन को सरल बनाइए - द्वारका प्रसाद चैतन्य

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vivratidarpan.com - जीवन में कठिनाइयां तथा मुसीबतें तब पैदा होती हैं, जब मनुष्य उसे जटिल, दुरुह और अधिक आडम्बरपूर्ण बना लिया करता है। जीवन की सरलता ही सुखद है। व्यवहार में सरलता, विचार और आचरण में स्पष्टता बनी रहे तो मनुष्य के जीवन में कहीं द्वेष की कठिनाइयां-परेशानियां नहीं आती हैं।

सरलता का अर्थ है विश्व को ऐसे रूप में देखना, जिसमें वह यथार्थ हो। यथार्थ परिस्थिति से भिन्न रूप बनाना ही जटिलता पैदा करना है, इसी से मुसीबतों का जन्म होता है। क्या आपने उस क्लर्क की कहानी पढ़ी है, जिसने अपनी धर्मपत्नी पर अपनी आत्मश्लाघा के फलस्वरूप अपना वास्तविक रूप प्रकट नहीं किया। अधिक आय बताकर उसने दांपत्य-जीवन में खाई पैदा कर ली। किसी विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए पत्नी ने हार की याचना की, जिसे वह क्लर्क पूरा नहीं कर सकता था किंतु अपनी महत्वाकांक्षा छिपाने के लिए किसी परिचित से हार मांगकर अपनी धर्मपत्नी की इच्छा पूरी की। दुर्घटनावश वह हार उत्सव में खो जाता है और उसकी कीमत चुकाने में उस क्लर्क को अपनी आय का आधा हिस्सा प्रतिमाह देना पड़ता है। आधी आय से उन्हें नितांत गरीबी का अभावग्रस्त जीवन जीना पड़ता है।

आज ऐसी ही कहानियां सर्वत्र देखने को मिल सकती हैं। साधारण जीवन-व्यवहार से लेकर उत्सवों, विवाहों, पर्वों पर, विद्यार्थी जीवन से लेकर सामाजिक व्यवहार तक सब जगह बड़प्पन के दर्शन होते हैं। जिनकी आय 50 रुपए प्रतिदिन है वह उसे छिपाकर 150 रुपये बताने में अधिक गौरव समझता है। घर की माली हालत अच्छी नहीं है पर बाहर निकलने के लिए वह सुसज्जित वेश-भूषा चाहता है। इस जटिलता के कारण पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में अनेक समस्याएं खड़ी होती हैं और मनुष्य का जीवन भार स्वरूप हो जाता है। उससे न खुद को कोई प्रसन्नता है न औरों को। दांपत्य जीवन में विद्वेष, पारिवारिक जीवन में कलह तथा कटुता, व्यक्तिगत जीवन में ऊब, उत्तेजना, अव्यवस्था, खर्चे की तंगी, बच्चों की शिक्षा को पूरा न कर पाना आदि अनेक कठिनाइयां केवल इसलिए खड़ी हो रही हैं कि मनुष्य जिस स्थिति में है, उससे बहुत अधिक बढ़-चढ़कर अपने आप को व्यक्त करना चाहता है। यह बनावटीपन जहां भी पैदा होगा, वहां के जीवन में भोंड़ापन अवश्य आएगा। उसके फलस्वरूप मनुष्य का जीवन कठिनाइयों, चिंताओं तथा दुरुहताओं में ही फंसता चला जाएगा।

मनुष्य का यह अहंभाव यदि समाप्त हो जाता है तो वह अपने सरल जीवन में आ जाता है। इसमें उसे कुछ हानि नहीं होती। लोग छोटा मानेंगे ऐसी बात नहीं। ऋषियों के जीवन में बड़ी सादगी और सरलता थी। इस कारण उनका गौरव सर्वमान्य ही है। समाज में हमेशा बनावटीपन, शेखीखोरी तथा अहंभावना की निंदा की जाती है। नकली चेहरा लगाकर आने वालों पर ही संसार हंसता है, जिसके अंदर सार्वभौम यथार्थता निर्दोष बनकर प्रतिबिंबित होती है, उसका जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय होता है। वह जाग्रत हो जाता है और दूसरों के लिए नमूना बनता है। उसकी अनेक परेशानियां उससे दूर रहती हैं और वह मस्ती का जीवन बिताता है।

जिसे हम स्वाभिमान और आत्माभिमान कहते हैं, वह इसी जीवन की सरलता का परिणाम है। हम जिस स्थिति में हैं, उसी में संतुष्ट रहें तो दूसरों के आगे न हाथ फैलाना पड़े, न सहायता मांगनी पड़े। आध्यात्मिक प्रवृत्तियां केवल इसीलिए जाग्रत नहीं होतीं, क्योंकि लोगों को बाहरी बनावट से ही फुरसत नहीं मिलती। गुणों का विकास भी इसीलिए नहीं होता, क्योंकि लोग अपने आप को बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने में ही जीवन की सफलता मानते हैं और इसमें जिसको जितना सम्मान मिल जाता है, उसी में गर्व और संतोष का अनुभव कर लेते हैं। बुद्धि का जो भाग जीवन-विकास और आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण में लगना चाहिए था, वह बाह्य विडंबना और आत्मप्रतारणा में ही बीतता रहता है। बौद्धिक स्तर का इससे विकास भले ही हो जाए किंतु आत्मिक स्तर दिनोंदिन गिरता जाता है। नैतिक दृष्टि से ऐसे व्यक्तियों को पिछड़ा हुआ ही मानना चाहिए। आहार-विहार, रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार तथा जीवन-निर्माण में मौलिक सरलता का समावेश होना नितांत आवश्यक है। मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है, जिसे निष्प्रयोजन नहीं होने देना चाहिए। आत्मा की आंतरिक स्फुरणा के साथ मनुष्य विकसित हो, यह उसकी मूल आवश्यकता है। उसके जीवन में स्नेह, प्रेम, आत्मीयता, दया, करुणा, उदारता, सौमनस्यता तथा सहिष्णुता का आदान-प्रदान बना रहे, इसके लिए यह आवश्यक है कि उसका जीवन शुद्ध और सरल बना रहे। इससे उसका मनोबल क्षीण न होगा। वह हतोत्साहित, परावलंबी तथा उदासीन न होगा। उसके जीवन में निरंतर एक ऐसी दैवी प्रतिभा का विकास होता रहेगा, जिसकी समीपता में उसके उपर्युक्त मानवीय गुण फलते-फूलते तथा अभिसंचित होते रहेंगे। जटिलता जीवन वृत्तियों को बाह्य उपचारों में लगाती है। सरलता आत्मिक स्तर को, अंत:करण को विशाल बनाती है। सत्य का व्यवहारिक स्वरूप सरलता है। इससे मनुष्य का हृदय विस्तीर्ण होता है, भावनाएं परिष्कृत होती हैं। जैसे-जैसे उसकी वृत्तियां अंत:वर्ती होती जाती हैं, वैसे ही वैसे वह संसार को भी अत्यंत स्वच्छ और स्पष्ट रूप में देखने लगता है। संसार के सच्चे रूप को देखना ही आत्मा की मूल आवश्यकता है। ईश्वर की आकांक्षा को कोई व्यक्ति भुलाकर सर्वव्याप्त सद्गुणों को ही अपने अंतर्गत अवगाहन करता रहे तो आस्तिकता की सारी आवश्यकताएं इसी से पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य के जीवन में जब मिथ्याहंकार तथा खोखलापन आता है, तभी वह सत्य की वास्तविकता से विभ्रम होता है और नास्तिकता के कूट-चक्र में फंसकर जीवन को कठिन बना डालता है। मानसिक अशांति का कारण क्या है? मनुष्य चाहता है कि संसार के सब पदार्थ अपने-अपने स्वभाव को छोड़कर उसी की इच्छानुकूल बर्ताव करने लग जाएं परंतु पदार्थ ऐसा करने में लाचार हैं। वे जिन प्राकृतिक नियमों में बंधे हैं, उनका उल्लंघन नहीं कर सकते, इसलिए जब वे मनुष्य की इच्छापूर्ति नहीं करते, तभी वह दुखी होने लगता है। भलाई तो इसमें थी कि वह वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को देखकर अपनी आवश्यकताओं को उनके अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता परंतु यह तभी संभव है, जब अपनी मानसिक वृत्तियों को नियत्रंण किया जाए और उन्हें स्थिति की परिधि से बाहर न होने दिया जाए। इच्छाएं, आकांक्षाएं बढ़ें, इसमें हर्ज नहीं पर वे साधनों के घेरे को तोड़कर बाहर न फैलने पाएं, इतना ध्यान बना रहे तो कोई भी प्रगति अनर्थकारक न होगी। संपन्नता, शक्ति और समृद्धि हमारी शान तो है किंतु वे यथार्थ होनी चाहिए। केवल प्रदर्शन मात्र न होना चाहिए।

मौलिक सरलता सजीव होती है। मनुष्य जब प्रत्येक वस्तु से अपना अधिकार छोड़ देता है और परिस्थितियों के साथ संयोग करता है, तभी उसे अपने भीतर का खोखलापन अनुभव हो जाता है और विनम्रता, धैर्य, करुणा तथा विवेक का जागरण होने लगता है। आत्मा सरल है और उसके समर्थन के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं। जटिलता तो केवल दुर्गुणों तथा पापवृत्तियों के कारण उत्पन्न होती है। अत: मनुष्य जब तक स्वयं पूर्ण जीवन अभिव्यक्त न कर ले, उस अपने मनोविकारों के शोधन-परिमार्जन में ही लगे रहना चाहिए। अंत:करण में कलुष न रह जाए और बाह्य जीवन में दंभ न शेष बचे, उसी प्रकार का जीवन निश्चयात्मक, शांत एवं दैवी प्रतिभा से ओतप्रोत होता है। आध्यात्मिक उन्नति और सच्चे सुख को प्राप्त करने का राजमार्ग, वृत्तियों का शमन है। जो लोग वृत्तियों के दास बनकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के प्रयत्नों में उचित-अनुचित का विचार नहीं करते, उनकी आत्मा दुर्बल रहती है। इससे छुटकारा तथी संभव है, जब मनुष्य इच्छाओं की दासता को अस्वीकार कर केवल औचित्य पर ध्यान दे। (विनायक फीचर्स)