गीत - जसवीर सिंह हलधर

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शब्द के सौंदर्य से जग को सजाकर ही रहूँगा ।

छंद की कारीगरी को आज़मा कर ही रहूँगा ।।

मुक्त कविता के समय में गा रहा हूँ छंद लय में ।

मुक्त तो ग्रह भी नहीं हैं व्योम गंगा के निलय में ।

सूर्य की पहली किरण का स्वाद पाकर ही रहूंगा ।।

शब्द के सौंदर्य से जग को सजाकर ही रहूंगा ।।1

खेलता कैसे रहूँ मैं खेल ये निशि भर तिमिर का ।

मुक्त होता है कभी क्या ताल से संबंध स्वर का ।

राज पिंगल ज्ञान का सबको बताकर ही रहूँगा ।

शब्द के सौंदर्य से जग को सजाकर ही रहूंगा ।।2

सुप्त सरिता कह रहे क्यों रेत में डूबी नदी को ।

भूल बैठे दासता की, नाश की पिछली सदी को ।

आज ये इतिहास का पर्दा उठाकर ही रहूँगा ।।

शब्द के सौंदर्य से जग को सजाकर ही रहूँगा ।।3

सत्य को कब तक ढकें हम मिथ्य के उस आवरण में ।

देश का खंडन छुपा है इस अहिंसा आचरण में ।

राजनैतिक खामियों का सत्य गाकर ही रहूँगा ।।

शब्द के सौंदर्य से जग को सजाकर ही रहूँगा ।।4

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून