गीत - भूपेन्द्र राघव
भ्रमवश कैसा डाल समझकर मैं आरे पर जा बैठा
अपने पंख कटा बैठा मैं अपने पंख कटा बैठा
दोष भाग्य सर मढ़ डालूँ
या फिर दे दूँ आखों को
देख न पायीं क्यूँ पिंजरे की
आखिर स्वर्ण सलाखों को
माणिक समझा अंगारे को
उर से आह! लगा बैठा
अपना कंठ जला बैठा मैं अपना कंठ जला बैठा
भ्रमवश ................. ................. ..................
नर्म रूई की चादर समझा
हिमखंडों को ओढ़ लिया
शहद समझकर तेजाबों से
निज आखों को फोड़ लिया
पाषाणों को ख़ुदा समझकर
ख़ुद को आज छला बैठा
अपने नेत्र गवां बैठा मैं अपनी देह गला बैठा
भ्रमवश ................. ................. ..................
दस्तानों को हाथ समझकर
पकड़ा बहुत करीने से
संगीनों को संगी समझा
रखा लगाकर सीने से
गले दोगले लगे भले बन
अपना गला कटा बैठा
आह, विश्वास उठा बैठा मैं अपनी लाश उठा बैठा
भ्रमवश ................. ................. ..................
- भूपेन्द्र राघव, खुर्जा, उत्तर प्रदेश