स्वयंभू, सर्वोच्च एवं शाश्वत हैं भगवान शंकर - सुनील कुमार

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Vivratidarpan.com - सावन या श्रावण के महीने को देवो के देव कहलाने वाले महादेव, भोलेशंकर या भगवान शिव(भोलेनाथ)का प्रिय मास माना जाता है। पूरे सावन के महीने में शिव की विशेष आराधना की जाती है। इस मास में कांवड़िए दूर दूर तक कांवड़ लेकर पैदल जाते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया कि भोलेनाथ इतने भोले हैं कि यदि उनको भक्तिभाव से हम एक लोटा जल भी चढ़ा दें, तो वह अति प्रसन्न हो जाते हैं और बिना मांगे ही सब कुछ दे देते हैं। पाठक जानते हैं कि आषाढ़ पूर्णिमा के समापन के साथ ही श्रावण माह आरंभ हो जाता है। इस बार यदि हम सावन की बात करें तो हिंदू पंचांग के अनुसार, श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि 21 जुलाई को दोपहर 3 बजकर 47 मिनट से आरंभ हो जाएंगी, जो 22 जुलाई को दोपहर 1 बजकर 11 मिनट पर समाप्त होगी। ऐसे में 22 जुलाई से श्रावण मास आरंभ हो रहा है, जो 19 अगस्त को श्रावण पूर्णिमा के साथ समाप्त होगा। यह बहुत ही रूचिकर है कि इस साल श्रावण मास सावन सोमवार के साथ आरंभ हो रहा है और इसी दिन के साथ समाप्त हो रहा है। सोमवार भगवान भोलेनाथ का अति प्रिय दिन भी है और इस साल कुल 5 सावन सोमवार पड़ रहे है। इसके साथ ही सावन माह के दौरान सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, रवि योग बन रहा है। इसके साथ ही ग्रहों की स्थिति के कारण कुबेर योग, मंगल-गुरु युति, शुक्रादित्य योग, बुधादित्य, लक्ष्मी नारायण योग, गजकेसरी योग , शश राजयोगों जैसे योग बन रहे हैं। सावन में भगवान शिव का रूद्राभिषेक किया जाता है।बिल्वपत्र, धतूरा, भस्म व फलादि अर्पित किए जाते हैं। भारत में  सावन बारिश का मौसम होता है और शिवजी को चढ़ने वाले फूल-पत्ते बारिश के मौसम में ही पल्लवित होते हैं इसलिए सावन में शिव पूजा की परंपरा बनी। सावन के महीने में पूर्णिमा तिथि पर श्रवण नक्षत्र होता है। इस नक्षत्र के कारण ही सावन महीने का ये नाम पड़ा बताते हैं। सावन के महीने में महादेव की पूजा, उनकी आराधना, भक्ति, आदि का विशेष महत्व माना जाता है। यहां पाठकों को यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि श्रावण मास के हर एक मंगलवार को मंगला गौरी व्रत रखा जाता है जिसमें मां पार्वती की पूजा करने का विधान है। श्रावण माह में भगवान शिव की पूजा करने से व्यक्ति को हर एक दुख-दर्द से छुटकारा मिल जाता है और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।भगवान शि‍व को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धालु विशेषकर सावन के महीने में अपनी सामर्थ्य अनुसार व्रत, उपवास, पूजन, शिव का अभि‍षेक आदि करते हैं। मान्यता है कि सावन के आरंभ में भगवान विष्णु योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं और इस सारे संसार की सत्ता-संचालन का दायित्व प्रभु शिव के हाथों में होता है। कहते हैं कि सावन माह में की गई उपासना का विशेष फल भक्तों को प्राप्त होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार विवरण मिलता है कि जब देवी सती(माता पार्वती )ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति द्वारा अपनी देह का त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को प्रत्येक जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने राजा हिमाचल और रानी मैना के घर में पार्वती के रूप में जन्म लिया था। मां पार्वती ने सावन के महीने में अन्न-जल आदि त्याग कर, निराहार रह कर कठोर व्रत किया था। मां पार्वती के इस व्रत से प्रसन्न होकर ही भगवान शिव(भोलेनाथ)ने देवी पार्वती से विवाह किया और तभी से भगवान महादेव को सावन का महीना अतिप्रिय है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं।सच तो यह है कि शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदि स्रोत हैं। वास्तव में, त्रिदेवों में भगवान शंकर को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भगवान ब्रह्मा सृजनकर्ता, भगवान विष्णु संरक्षक और भगवान शिव विनाशक की भूमिका निभाते हैं। वैसे तो भगवान शिव के अनेक नाम हैं लेकिन शिव के कुछ प्रचलित नामों में महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय (मृत्यु पर विजय पाने वाले), त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर, नीलकण्ठ, महाशिव, उमापति (माता पार्वती के पति), काल भैरव, भूतनाथ, त्रिलोचन (तीन नयन वाले), शशिभूषण, पशुपतिनाथ, अर्द्धनारीश्वर, लिंगम(संपूर्ण ब्रह्मांड के प्रतीक), नटराज (नृत्य के देव), भोलेनाथ (कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वालों में अग्रणी तथा बहुत जल्द प्रसन्न होने वाले) आदि को शामिल किया जाता है। यहां आदि का अर्थ है प्रारंभ। शिव को 'आदिनाथ' भी कहा जाता है और आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। भगवान शिव को रूद्र नाम से भी जाना जाता है। रुद्र का अर्थ है रुत् दूर करने वाला अर्थात दुखों को हरने वाला। वास्तव में रूद्र से तात्पर्य है दुखों का निर्माण और नाश करना। 'शिव' शब्द का अर्थ 'शुभ, स्वाभिमानिक, अनुग्रहशील, सौम्य, दयालु, उदार, मैत्रीपूर्ण' होता है। लोक व्युत्पत्ति में 'शिव' की जड़ 'शि' है जिसका अर्थ है जिन में सभी चीजें व्यापक हैं। यहां 'वा' का अर्थ है 'अनुग्रह के अवतार।' ऋग्वेद में शिव शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है। शिव शब्द ने "मुक्ति, अंतिम मुक्ति" और 'शुभ व्यक्ति' का भी अर्थ दिया है।  कैलाश सरोवर को शिव का निवास स्थान माना जाता है, जहां भगवान शिव साक्षात् विराजते हैं। शिव’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘जो नहीं है’। शिव 'शून्य' हैं।  देखा जाए तो हमारी इस संपूर्ण सृष्टि में सब कुछ 'शून्यता' से ही तो आता है और वापस 'शून्य' में ही चला जाता है।  शिव ही वो गर्भ हैं जिसमें से सब कुछ जन्म लेता है, और वे ही वो गुमनामी हैं, जिनमें सब कुछ फिर से समा जाता है। सब कुछ शिव से आता है, और फिर से शिव में चला जाता है। दूसरे शब्दों में यह बात कही जा सकती है कि  शिव वह चेतना है जहाँ से सब कुछ आरम्भ होता है, जहाँ सबका पोषण होता है और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है| कोई भी कभी 'शिव' के बाहर नहीं हैं क्योंकि पूरी सृष्टि ही शिव में विद्यमान है। हमारा मन, शरीर सब कुछ केवल शिव तत्व  से ही बना हुआ है, इसीलिए शिव को 'विश्वरूप' कहते हैं जिसका अर्थ है कि सारी सृष्टि उन्हीं का रूप है। शिव का कोई आदि और अंत नही है। भगवान शिव को स्वयंभू कहा जाता है जिसका अर्थ है कि वह अजन्मा हैं। वह ना आदि हैं और ना ही अंत। वास्तव में,भोलेनाथ को अजन्मा और अविनाशी कहा जाता है। सच तो यह है कि श्रद्धा का नाम माँ पार्वती और विश्वास का नाम शिव है।  'शिवतत्व" में शिवतत्व और शक्तितत्व दोनों का अंतर्भाव होता है। परमशिव प्रकाशविमर्शमय है। इसी प्रकाशरूप को शिवतत्व और विमर्शरूप को शक्तितत्व कहते हैं। यही विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार के रूप में प्रकट होती है। शिवलिंग अनंत शिव की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। शिव को सुंदरेश भी  कहते हैं वहीं उन्हें अघोर (भयंकर) भी कहते हैं। शिव, चेतना की जागृत, निद्रा और स्वप्न अवस्था के परे हैं| शिव समाधि हैं - चेतना की चौथी अवस्था, जिसे केवल ध्यान में ही प्राप्त किया जा सकता है। इस संसार में बल्कि यूं कहें कि इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ शिव न हों, यानी कि शिव सर्वत्र विराजमान हैं। जब हम शिव कहते हैं, तो हम एक विशेष योगी की बात कर रहे होते हैं। वे जो आदियोगी या पहले योगी हैं, और जो आदिगुरू, या पहले गुरु भी हैं। आज हम जिसे योगिक विज्ञान के रूप में जानते हैं, उसके जनक शिव ही हैं। अतः हम यह कह सकते हैं कि शिव शब्द के दो अर्थ हैं। एक योगी शिव और दूसरा शून्यता। ये दोनों ही देखा जाए तो एक तरह के पर्यायवाची हैं, पर फिर भी वे दो अलग-अलग पहलू हैं। ॐ नमः शिवाय मन्त्र हमारे संपूर्ण सिस्टम को शुद्ध करता है और ध्यानमय बनाने में हमारी मदद करता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि भगवान शिव का स्वरूप कल्याणकारक है। समुद्र मंथन के समय महादेव को इस दुनिया को बचाने के लिए विष(जहर) का पान करना पड़ा था, और उस महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण करना पड़ा था। यही कारण है कि उन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है।मान्यता है कि सावन के महीने में भगवान शिव और माता पार्वती भू लोक पर साक्षात् निवास करते हैं और यदि विधि​-विधान से सच्चे मन, आत्मा, विश्वास और पूर्ण श्रद्धा भाव से उनका पूजन किया जाए तो सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। 'सत्यम् शिवम् सुंदरम' अर्थात इस संसार में जो भी सत्य है, वह शिव है और जो शिव है, वह स्वयं में सुंदर है। वास्तव में, शिव चेतना के स्वामी हैं और शिव की अर्द्धागिंनी स्वयं मां शक्ति अर्थात पार्वती हैं। शिव के पुत्र कार्तिकेय,अय्यपा और गणेश हैं और अशोक सुंदरी, ज्योति और मनसा देवी इनकी पुत्रियां हैं। शिव के मस्तक में ज्वाला है, जिसे शांत करने के लिए उनके मस्तक पर चन्द्रमा तथा जटाओं में पावन मां गंगा का वास है। शिव के गले में नागदेवता का वास है और इनके हाथों में डमरू और त्रिशूल हैं। शिव सौम्य भी हैं और रूद्र हैं। इसलिए शिव जी की पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। अंत में, हम यह बात कह सकते हैं कि शिव स्वयंभू  हैं, शाश्वत हैं, सर्वोच्च हैं। शिव इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अस्तित्व के आधार हैं।(विनायक फीचर्स)