नदिया के किनारे जैसे - सुनील गुप्ता
(1)"नदिया ", नदिया के दो किनारे जैसे
होकर रह गए यहां बस !
बढ़ती जा रही नित ये दूरी....,
बहते दूर चले आए हैं अब !!
(2)"के ", केतु राहू की लगी लग्न दशा
या और किसी का चक्कर है !
हर पल बदल रही है मनोदशा....,
या किस्मत का ये कोई खेल है !!
(3)"किनारे ", किनारे पर खड़े होकर
दूर जाते देख रहे उन्हें !
ग़र होगी किस्मत लौटा लाएगी.....,
फ़िर से मिलाएगी हमें !!
(4)"जैसे ", जैसे थे हम, वैसे ही हैं
बदलाव तनिक भी नहीं हुआ !
हम बहते पत्थर जैसे बन गए.....,
बस सूरत पर कुछ असर हुआ !!
(5)"नदिया के किनारे जैसे ", हम
एकटक राह लगाए बैठे हैं !
माझी को शायद अहसास नहीं....,
कि, उनकी तलाश में वो ज़िंदा हैं !!
(6)"नदिया के किनारे जैसे ", दो
कभी एक नहीं हुआ करते !
बस आशाएं उनको ज़िंदा रखती....,
मृग तृष्णा में वो यहां पर जीते !!
- सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान