क्या जिंदगी है (दामिनी छंद) - अनिरुद्ध कुमार

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भूल बैठी अब जिंदगी, अपना नहीं है।

रात दिन बेचैन हरदम, सपना नहीं है।

दिल जले अंधेरा घना, भूला किनारा।

चल पड़े राहे सफर में, रहना नहीं है।।

हो परेशा मारें फिरें, मंजिल कहाँ है।

ठंड से हालात बदतर, कोई कहाँ है।

जिंदगी भी रूठी लगें, ढ़ूंढ़े सहारा।

आदमी बेजाना यहाँ, होता गुजारा।।

धूँध में क्या देखें बता, सूझे नहीं है।

रोशनी दुबकी सहर में, कूहा बड़ी है।

सर छुपाये सोये सदा, बोले घड़ी है।

आफतों से लड़ना यहाँ, क्या जिंदगी है।।

- अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड