कविता - जितेंद्र कुमार
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँl
जन्म हुआ उत्सव मना,
माँ की छाती ममतामयी बनी,
पिता की छाती गौरवमयी बनी,
चाचा-चाची भैया-भाभी,
सबका हृदय उल्लासित हुआ,
पिता ने जाकर घर-घर खूब,
मिठाइयां थी बांटी,
अपने पिता की दौलत हूँ l
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
माँ की ममता पिता का प्यार,
पाकर मैं खुश रहती थी,
कब रात हुई कब सुबह हुई,
इसका मुझको कुछ ज्ञात नहीं,
जहाँ नींद लगी वही रात हुई,
जहाँ आँख खुली वहीं सुबह हुई,
हँसते-हँसते दिन ढलता था,
जो-जो माँगती सो-सो मिलता था,
मैं पापा की दुनियाँ हूँ l
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
माँ घर में खूब प्यार जताती,
बाहर से घर जब पापा आते,
मेरी सब माँगे ले आते,
कभी पतंगें कभी गुब्बारें
कभी गुड्डा-गुड़िया ले आते,
कभी मिश्री कभी मलाई,
कभी रेवड़ी कभी पेठे ले आते,
गोद में वें मुझे बैठाकर,
खूब प्यार से मुझे खिलातें,
मैं पापा की राजदुलारी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
मैं पापा की प्यारी तितली,
मैं पापा की प्यारी चिड़ियाँ ,
मैं पापा की प्यारी चड़ियाँ,
मैं पापा की प्यारी परियाँ,
मैं पापा का प्यारा बेटा,
मैं पापा की प्यारी सोना,
यह सब बचपन के नाम हमारे,
मैं पापा की सारी खुशियाँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
समय चक्र का पहिया नाच,
छोटी से कब बड़ी हुई,
यह मुझको बिलकुल ज्ञात नहीं,
पापा ने एक वर खोजा,
और हमारी शादी कर दी,
विदाई का था माहौल,
माँ की ममता पिता का प्यार,
मानो सब कुछ छूट रहा था,
घर आँगन परिवार छूटा
सुंदर दुनिया मेरी उजड़ी
फूल पत्ती कलियाँ सब सुखी,
आँखों में थे आंसू हृदय हमारा द्रवित हुआ,
सब कुछ पल में छूट गया,
दुनिया मेरी टूट गयी,
चेतन से जड़ बन गयी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
घर छूटा ससुराल मिला,
जीवन की मेरी काया बदली,
लोग नयें थें घर नयें थें,
लोगों के व्यवहार नयें थें
कैसे अपने आप को ढालू,
बड़ी चुनौती थी मेरी,
अपनी इच्छा अपनी खुशियाँ,
सब मैंने ही मार दिया,
सास,ससुर और पति की सेवा में,
अपनी दुनिया भूल गयी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
मैं उड़ती हुई एक चिड़िया थी,
मुझे घर की दीवारों में कैद किया,
पढ़ने-लिखने घूमने-फिरने की इच्छा को,
चूल्हे की भट्टी में झोंक दिया,
पिता के घर, मै ताजमहल थी,
यहाँ खंडहर की दीवार बनी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
थक गयी हूँ मैं उलाहना सुन-सुन कर,
हर गलती का जिम्मेदार बन बनकर,
चुप रहती हूँ अपने आवेश को रोके,
घर के कोने अंधेरों में मेरे चीखों को शरण मिल,
मोमबत्ती सा जीवन मेरा,
घर आँगन को रौशन करती,
लेकिन खुद के जीवन पर भी,
मैंने कुछ ना विचार किया,
सपनों के जो पंख लगे थें,
धीरे-धीरे नाश हुआ,
मैं माँ-बाप के लिए शुभकारी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
आशाएँ सब टूट रही थी,
जब मुकद्दर भी मुझसे रूठ रहा था,
हृदय में एक उम्मीद जगी,
पापा मुझको बेटा कहते थे,
यह बात जब मुझको याद आयी,
कौन कहता स्त्री अबला होती है,
सबला होकर मैं दिखलाऊंगी,
आश और उम्मीद के बीज
हृदय में अंकुरित होने लगे,
आत्मविश्वास फिर से बढ़ा,
जीवन जीने को ठान लिया,
दुनिया को मुट्ठी में करना है,
यह हमने अब मान लिया,
मैं मम्मी-पापा की लक्ष्मीबाई हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ,
मैं स्त्री नहीं एक बेटी हूँ l
- जितेंद्र कुमार,गोरखपुर, उत्तर प्रदेश