कविता - डॉ मेघना शर्मा

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दरकती दरख़्त की छाल

मनुज के हृदय पटल का

खाका खींचती रेखाएं,

कुछ टेढी मेढी कोटरों में

पुराने पंछियों के बसेरे

मनुज स्मृतियों के किले,

कुछ झरते शाख के पत्तों से

कुछ स्थाई दरख़्तों की जड़ से

नई आशा की बैसाखियां

कोंपलों के रूप में,

मजबूरी की शाख से लिपटी

मनुज काल के नित नए बंधन

कुछ थोपे हुए,

नई बेलों के सहारे के

रूप में खडा दरख़्त

कुछ मनचाहे गम लेता हुआ,

विराट वृक्ष सा मनुज हृदय

फूलों की प्रतीक्षा में

बरस हो चले खडे खडे

मनुष्य जयूं करता रहा हो,

जैसे खुद को मिटा

नव पीढी का संचार!

- डॉ मेघना शर्मा, बिकानेर, राजस्थान