जय हो उपन्यास सम्राट - हरी राम यादव

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'नमक के दरोगा' जी चले,

लेकर 'दो बैलों की जोड़ी'।

'ईदगाह' में लगी उनको ,

'पूस की रात' में ठंडी थोड़ी‌।

'ठाकुर के कुएं' से होकर आगे,

'बूढ़ी काकी' से की बात।

'बड़े भाई साहब' से मिलने चले,

सोच रहे 'नशा' करे हमेशा नाश।

'बडे़ बाबू' मिल गये राह में,

'पंच परमेश्वर' की जय बोले।

'कर्मों का फल' मिले यहीं,

मिले न 'कफन' जो विष घोलें।

'शराब की दुकान, की ओर चले,

पर आयी 'जेल की याद'।

'दुर्गा मंदिर' जाकर की पूजा,

'प्रायश्चित' कर की फरियाद।

हो गयी 'सुशीला की मृत्यु' ,

करने चले 'कफन' जुगाड़।

'नरक का मार्ग' देखकर,

'माता का ह्रदय' रोया दहाड़।

'अपनी करनी' ठीक हो सदा,

होगा यहि जग से 'उद्धार' ।

'राष्ट्र के सेवक' की 'परीक्षा',

होती है "हरी" जगत में हर बार।

मत करो 'गबन' संपत्ति का,

'कर्मभूमि' है पावन जग में।

'गोदान' के भरोसे मत रहना,

ईमान की 'प्रतिज्ञा' हो रग रग में।

'वरदान' मिलेगा तभी तुम्हें,

जब 'सेवासदन' में हो निवास।

'रुठी रानी' तब ख़ुश होंगी,

जब 'प्रेमाश्रम' होगा पास।।

- हरी राम यादव, अयोध्या, उत्तर प्रदेश

फोन नंबर – 7087815074