अधूरा पिता - सविता सिंह

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आये  जो तुम महक उठा ये आंगन,

फूल  ही  फूल भर  गए थे प्रांगण।

रौशन हो गई जिंदगी इस चिराग से,

समीर  भी  चूमे उसे तो प्यार  से।

शलभ  बनकर  रहते  थे पास,

लौ  से उसकी  फैला  था उजास।

बालपन  देख  वह  भी बने बालक,

झूमते थे संग संग जैसे हो शावक।

दीपक को पड़ी जब अंजूरी की जरूरत,

छोड़ दिया वो आंगन, हो गया रुखसत।

सामंजस्य नहीं  अभिभावक  के  बीच,

रह गया वह चिराग अपनी आंखें मींच।

बालक रह गया अब तो मां के संग,

जीवन पिता का  हो गया बेरंग।

जब  भी आता है जन्म दिवस,

पिता  रहता  ह्रदय से  विवश।

भेजें  आशीष वह तो संग पवन,

आबाद    रहे   उसका  जीवन।

बच्चे  का  तो  सोचते  एक बार,

उस पर  तो  कर  देते उपकार।

बालक  रहे या  पिता  के संग,

या  रहे   हो   मां  के  संग।

एक की  भी अगर  होगी कमी,

जड़ें भला  कैसे पकड़ेंगे  जमीं।

- सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर