हे रतिनाह बसन्त - अनुराधा पाण्डेय

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मौन चंदा मौन तारे ,

बैठ कर मैं इस धरा से,

एकटक देखूँ गगन को ।

क्या पता पर चाँद को है ,

चातकी की साधना का ?

शून्य ही दिखता फलित है ,

योगमय आराधना का ।

आज तक समझा न कोई ,

एक रस मेरी लगन को ।

एक टक देखूँ गगन को ।

जल रहा हो तन अगर तो ,

नीर दे जग ताप हरता ।

किन्तु अंत: चेतना का

कौन है संताप हरता ?

नीर जग में कौन ऐसा...

जो हरे अंतस जलन को ।

एक टक देखूँ गगन को ।

- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली