ग़ज़ल - विनोद निराश

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याद जब आती है यादें, कुछ भी कहने नहीं देती,

मुसलसल साथ रहती है तन्हा रहने नहीं देती।

याद करते - करते  हो जाती है आँखे अश्के-बार,

पलके संभालती आँसूं आँख से बहने नहीं देती।

जख्मे-दर्द-ए-दिल जब कभी हद से बढ़ जाता है,

यादें तुम्हारी दर्दे-दिल कुछ भी कहने नहीं देती।

पलक झपकी बह गए जागती आँखों से ख्वाब,

मगर यादें तेरी वो ख्वाबे-मंज़र ढ़हने नहीं देती।

तुमसे अलैहदा होंगे बेशक तन्हा हो गया निराश,

पर चाहत तेरी हाथ गैर का कभी गहने नहीं देती।

- विनोद निराश, देहरादून