ग़ज़ल - रीता गुलाटी
Sep 25, 2024, 22:38 IST
| हकदार अब नही है नारी भी बेडियों की,
उसको नही जरूरत जीवन मे कायरों की।
खेले सभी थे,मिलजुल आंगन मे भाई बहना,.
यादें सता रही हैं गुजरे हुऐ दिनों की।
क्यो चांद अब न निकला, नजरे छुपा रहा है,.
वो राज जानता है माने है बादलों की।
फांको मे दिन भी गुजरा, जीते हैं मुफलिसी मे,
इक आस वो रखे है़ सिर पर मिले छतों की ।
भोगे है़ं कष्ट नारी, संसार यातना भी,
सबला बनी है नारी क्या चाह चूड़ियों की।
आ हौसला न छोडे, कीमत बता दे सच की,
बातें नही सुनेगे अब यार बुजदिलों की।
गातें है गीत सारे मिल जुल वो भक्ति के हैं.
खुद्दार सी खनक है गीतो में तेवरों की।
- रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़