ग़ज़ल - रीता गुलाटी

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क्यो बार बार रूठे कैसा ये सिलसिला है,

जीना है साथ तेरे, देता हमें क़जा है।

मुझको नहीं पता है घुट घुट के जी रही हूँ,

महबूब मेरा मुझ से किस बात पे ख़फा है।

जीते है दर्द मे हम ढूँढे तुम्हे हमेशा,

वो छोड़कर गये हैं कैसी मिली सजा है।

हमको  भुला दिया है,तूने तो हमनवां रे,

तड़फे है याद मे हम कैसा चढ़ा नशा है।

कैसे बितायी रातें तुमसे बिछुड़ के हमने,

किस्मत से पास आये साथी हमे मिला है।

- रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़