ग़ज़ल - रीता गुलाटी

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खुदा का हाथ सर होता है,

फिर किसका अब डर होता है।

दिल मे बैठा दिलबर मेरा,

वो गहरा सागर होता है।

घूमो चाहे तुम दर दर पर,

घर तो आखिर घर होता है।

माँगो तुम अब उस मालिक से,

जो  तेरे  अन्दर होता है।

सबसे तू राज छुपाता है,

वही खुदा भीतर होता है।

आज कमाने बाहर निकली,

दिल मे डर अंदर होता है।

माँ का आँचल ही सुख देता,

सबसे वो बहतर होता है।

- रीता गुलाटी ऋतंभरा, चण्डीगढ़