ग़ज़ल - राजू उपाध्याय
Jul 10, 2024, 23:45 IST
| रात दिन गुमसुम हुये है, तुम कुछ बोलो धीरे -धीरे,
एहसासों की नर्म गांठ को , तुम कुछ खोलो धीरे -धीरे।
तर-ब-तर होने को तरसते, ख्वाहिशों के तपते समन्दर,
ठहरे दरिया हिलोर मचायें, कुछ इनमे घोलो धीरे -धीरे।
हमने माना नही होता है, अब दुआओं से असर कोई,
सिर रख के किसी कांधे पर, तुम कुछ रोलो धीरे -धीरे।
आँखों की बस्ती में होती, कोरो से काजल की चोरी,
जज्बातों की इस रंगत में, तुम कुछ टटोलो धीरे -धीरे।
रोम रोम जो कांप रहा है, शायद रूह जिस्म की रोई,
बदरंगी,दामन की अब, तुम अश्कों से धोलो धीरे -धीरे।
जागती रातों की भंवर में, क्यों नीदो को बैचेन किया,
पहले पंख दो ख्वाबों को, फिर तुम सोलो धीरे -धीरे।
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क्या पता फिर लौट न जाये, वक्त का आया परिंदा,
जिक्रे-इश्क के नाम पर, तुम किसी के होलो धीरे -धीरे।
- राजू उपाध्याय, एटा , उत्तर प्रदेश