ग़ज़ल हिंदी - जसवीर सिंह हलधर

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घाव जो दिल में छुपे चलकर  ज़ुबां तक आ गए ।

बेटियों के ज़ज़्ब अब सोचो कहां तक आ गए ।

मुद्दतों से कैद थे जो हरकतों के सिलसिले ,

वहशियों के कारनामे अब उफां तक आ गए ।

ना मुरादों ने नहीं फ़रियाद बच्चों की सुनी ,

पहलवानों के तगाफुल इम्तिहां तक आ गए ।

जीतकर मैडल दिया तो हिंद की बेटी कहा ,

अब वही नेता मेरे सुदो जियां तक आ गए ।

राजनैतिक खेल में अब फस गए हैं केसरी ,

और कुछ नेताओं के उल्टे बयां तक आ गए ।

आग में घी डालने को जातियां आने लगीं ,

खाप के मैदान में अब कारवां तक आ गए ।

कौन है इसका रचियता दोष किसके सिर मढ़े ,

कुश्तियों के फलसफे सारे जहां तक आ गए ।

फावड़ा "हलधर" पिघल होने तलवार अब,

शब्द मेरे युद्ध ये लड़ने यहां तक आ गए ।

 - जसवीर सिंह हलधर, देहरादून