ग़ज़ल हिंदी -  जसवीर सिंह हलधर

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काठ के घोड़े हक़ीक़त जानते क्या अस्तबल की,

झोंपड़ी की आग की या पेट में सुलगी अनल की।

छांव बरगद में जलन है और बाड़ों में तपन है,

कूप का पानी विषैला गंध आती है गरल की।

राज है अब बस्तियों पर जातिवादी जानवर का,

गांव की चौपाल रोती देख हरकत जाति छल की।

धूप दिन में रो रही है राज कुहरे का हुआ है,

बाग माली से डरा है रूह कांपी फूल फल की।

खेत से खलिहान बोला क्या उगाया आज तूने,

शक्ल है बारूद जैसी गंध इसकी नीम खल की।

मैं नहीं कहता यही इतिहास कहता आ रहा है ,

क्या किसी सरकार ने आंकी सही कीमत फसल की।

कौन "हलधर" का हितैषी प्रश्न मुँह खोले खड़ा है,

लोभ के हाथों बिकी हैं यूनियन सब आजकल की।

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून