ग़ज़ल - भूपेंद्र राघव

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स्लेट पर फिर स्लेटियाँ दिखने लगीं,

फिर चमकती पुतलियाँ दिखने लगीं

कोख में जो कट रहीं थीं आजतक ,

आँगनों में बेटियाँ दिखने लगीं

ढक रही थीं रूढ़ियों की धुंध से ,

आश की वह चोटियाँ दिखने लगीं

फिर अमन मन में दिखाई दे रहा ,

फिर चमन में तितलियाँ दिखने लगीं

जिसने ना देखा कभी अपना गला,

उसको मेरी गलतियाँ दिखने लगीं

फिर घुसा है भेड़िया कोई यहाँ ,

रास्तों पर तख्तियाँ दिखने लगीं

 

बांटने खुशियाँ मुड़ा "राघव" उधर,

ओर जिस भी सिसकियाँ दिखने लगीं

- भूपेंद्र राघव , खुर्जा, उत्तर प्रदेश