ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

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समंदर पार क्यों अपना घरौंदा मानता है ।

नए मुल्कों के बारे में अभी क्या जनता है ।

जमीं लगती नई सी आसमां लगता नया सा ,

नया कुछ भी नहीं है सिर्फ़ ये अज्ञानता है ।

यहां रोता रहा कोई मगर उसको ख़बर क्या ,

दुखी मां बाप के आंसू नहीं पहचानता है ।

अधूरे काम छोड़े जा रहा है इस चमन में ,

वहां बारूद के ढेरों में तंबू तानता है ।

विदेशों में किसी को भी किसी से प्यार है क्या ,

खिजां के पीत पत्तों को बहारें मानता है ।

वहां दोयम बताते हैं ख़री अब्बल नसल को ,

पराए मुल्क में मिलती नहीं सम्मानता है ।

उसे मेरी ग़ज़ल भायी नहीं नाराज़ है वो ,

मेरे मिसरों में भारत भूमि की प्रधानता है ।

मशीनी हो गया है आदमी तन्हा सफ़र में ,

वतन को छोड़ 'हलधर' ख़ाक बाहर छानता है ।

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून