ग़ज़ल( हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर
Updated: Jul 9, 2024, 22:58 IST
| मुझे शहरी नहीं मानो निशानी गांव में भी है ।
यहाँ है नौकरी खेती किसानी गांव में भी है ।
न छोड़ी है जमीं मैंने भले ही आसमां चूमा ,
अभी माँ बाप की कुटिया पुरानी गांव में भी है ।
मेरे खुशहाल रहने की दुआ दिनरात करती है ,
जुबाँ पर मात के मेरी कहानी गांव में भी है ।
यहां बीती जवानी अब बुढापा दे रहा दस्तक ,
मगर बचपन की यादों की रवानी गांव में भी है ।
गवाही दे रहा है आज भी वो पेड़ बरगद का ,
वो जिसकी छांव ए सी से सुहानी गांव में भी है ।
कबूतर भी उड़ाते थे पतंगें भी उड़ाते थे ,
मेरी नादानियों की सच बयानी गांव में भी है ।
मुसाफ़िर हैं पहाड़ों में मुहाजिर मान मत लेना ,
अभी पहचान अपनी खानदानी गांव में भी है ।
अभी मत और कह "हलधर" बढ़ी सूची है शे'रों की ,
अगर उला यहाँ पर है तो सानी गांव में भी है ।
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून