ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

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नहीं है आज सिर पे ताज पर कल तो हमारा है ।

चलें  देखें  समंदर  का  कहां  दूजा  किनार है ।

सजी मंदिर की मूरत बोल सकती है अगर चाहो ,

लगे उसको किसी ने आज अंदर से पुकारा है ।

नुकीली धार पानी की जमा पर्वत हिला देती ,

सभी नदियों ने अपना रास्ता खुद ही निखारा है ।

जरा सी चोट लगती है कलेजा मात का हिलता ,

खुदा ने रूप अपना नाम माँ देकर उतारा है ।

कभी सोचा नहीं हमने पिताजी छोड़ जाएंगे ,

लगाया बाग हांथों से वही अब तो सहारा है ।

गिने क्या पैर के छाले कभी अपने बज़ुर्गों के ,

जलाकर हाथ अपने आग में हमको सँवारा है ।

लपट आने लगी है रोग की पिछली सदी जैसी ,

किसी ने खो दिया बापू कहीं खोया दुलारा है ।

गढ़े मुर्दे भी अपना दर्द कहते हैं सुनो "हलधर"

चुनावों में हमारे देश का ऐसा नज़ारा है ।

 - जसवीर सिंह हलधर, देहरादून