ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर
Feb 24, 2024, 23:49 IST
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अनाड़ी ने कभी जानी नहीं सीरत मुहब्बत की ।
कबाड़ी क्या लगाएगा सही कीमत इमारत की ।
हमारे पास भी जख्मों भरा पूरा पिटारा है ,
हमें फुर्सत नहीं मिलती अभी उनसे शिकायत की ।
हमारी नाव में उल्फत भरा सामान अब भी है ,
मगर पतवार को खाई मुई दीमक सियासत की ।
डरी सहमी सी कलियां हैं चमन में देख लो आ के ,
भरें बाजार नजरें झेलती है वो शरारत की ।
अजब इंसाफ है मगरूर को मशहूर कहने का ,
नहीं तहज़ीब है जिसमें जमाने से रवायत की ।
गवाही दे रही हैं सरहदें उस रात काली की ,
फिरंगी खींच कर भागे जहां पर लीक नफरत की ।
बज़ुर्गों का कहा अब कौन सुनता है यहां यारो ,
नहीं "हलधर"यहां कीमत विचारों की हिदायत की ।
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून