ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

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अनाड़ी ने कभी जानी नहीं सीरत मुहब्बत की ।

कबाड़ी क्या लगाएगा सही कीमत इमारत की ।

हमारे पास भी जख्मों भरा पूरा पिटारा है ,

हमें फुर्सत नहीं मिलती अभी उनसे शिकायत की ।

हमारी नाव में उल्फत भरा सामान अब भी है ,

मगर पतवार को खाई मुई दीमक सियासत की ।

डरी सहमी सी कलियां हैं चमन में देख लो आ के ,

भरें बाजार नजरें झेलती है वो शरारत की ।

अजब इंसाफ है मगरूर को मशहूर कहने का ,

नहीं तहज़ीब है जिसमें जमाने से रवायत की ।

गवाही दे रही हैं सरहदें उस रात काली की ,

फिरंगी खींच कर भागे जहां पर लीक नफरत की ।

बज़ुर्गों का कहा अब कौन सुनता है यहां यारो ,

नहीं "हलधर"यहां कीमत विचारों की हिदायत की ।

 -  जसवीर सिंह हलधर, देहरादून