ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

कैसे कैसे सपने पाले बैठा है ।
जाल मछेरा अब भी डाले बैठा है ।
मछली को मालूम बनूंगी भोजन मैं,
बूढ़ा चावल साथ उबाले बैठा है ।
दीमक लगी नाव दरिया में ले आया ,
फिर भी क्यों पतवार संभाले बैठा है ।
अपने धोती कुर्ते के धब्बे भी गिन,
दूजों की दस्तार उछाले बैठा है ।
तूने उसकी ख़बर लिखी अखबारों में ,
वो भी तुझ पर लिखे रिसाले बैठा है ।
कैसे बने राष्ट्र की गरिमा हिंदी से ,
शिक्षा में अब भी मैकाले बैठा है ।
आरक्षण पर बहस देश में जारी है ,
संविधान तरकीब निकाले बैठा है ।
निर्वाचन में युद्ध छिड़ा है वादों में ,
हर दल अपने लेकर भाले बैठा है ।
गांवों में कोहराम शहर में कुहरा है,
मौसम लेकर रूप निराले बैठा है ।
सरकारों ने कब फसलों की कीमत दी,
प्रश्न हमारा संसद टाले बैठा है ।
लोकतंत्र भी खून गरीबों का पीता,
"हलधर" ले हाथों में छाले बैठा है ।
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून