गीतिका - मधु शुक्ला

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श्रम के बदले जो धन मिलता, मजदूरी उसको कहते हैं,

डिग्री धारी हों या अनपढ़, सब आश्रित इस पर रहते हैं।

श्रम शारीरिक हो या बौद्धिक, मगर बिकते हैं दोनों ही जग में,

जैसी जिसकी क्षमता होती, मजदूरी वैसी गहते हैं।

साहब कोई नौकर कोई, है अजब निराली दुनियाँ यह,

जज्बातों का यहाँ मोल नहीं,नित घर सपनों के ढहते हैं।

जीवन यापन के हेतु सभी,जो मिलता काम वही करते,

खुशी और गम सबको हँसकर, मजबूरी वश सब सहते हैं।

संसारी को परिवारों का, पालन पोषण करना होता,

कर्तव्य निभाने के पथ में, तन मन दोनों ही दहते हैं।

 — मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश