गीतिका - मधु शुक्ला

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साथ  परछाईं  न  छोड़े  यह  नियम संसार का,

भूलती  छाया  नहीं  कोई  सबक व्यवहार का।

रंग बदलें  रोज  रिश्ते  वक्त  पर  गायब  रहें,

अब नहीं विश्वास करता मन किसी आधार का।

है  अकेला  भीड़  में  भी आजकल हर आदमी,

ढूँढ़ते  हैं  द्वार  सब  ही  स्वर्ण  के  भंडार  का।

भावना  सहयोग  की  अब लुप्त होती जा रही,

घट रहा है रात दिन अस्तित्व अब उपकार का।

मीत  परछाईं  बने  जब  जिंदगी  हँसती  तभी,

सामना धन कर नहीं सकता कभी भी प्यार का।

मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश