गीत -  जसवीर सिंह हलधर

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सोना खेतों ने उगला जब ,ठीक तरह हम तोल न पाए ।

माना बेईमान हुए वो ,हम भी तो कुछ बोल न पाए ।।

खेती का वरदान मिला था , हम धरती के महा रथी थे ।

साहूकारों की मंडी में  , छुपकर बैठे पतित पथी थे ।

उनको मालिक मान लिया क्यों , अपना खाता खोल न पाए ।।

माना बेईमान हुए वो, हम भी तो कुछ बोल न पाए ।।1

बहुत सरल होता है यारो , महज हवा में किले बनाना ।

लेकिन काम कठिन है भाई , दानों की कीमत घर लाना ।

आँखों आगे माल चुराया , दो पग आगे डोल न पाए ।

माना बेईमान हुए वो , हम भी तो कुछ बोल न पाए ।।2

अपनी बात सुनाते रहना ,चार जनो में ज्ञानी बनकर ।

व्यापारी के संग कभी क्या , सौदा कर पाए हम तनकर ।

रंग बदलते बाज़ारों में  , अपनी राह टटोल न पाए ।।

माना बेईमान हुए वो , हम भी तो कुछ बोल न पाए ।।3

संसद में बैठे नेता जी , खूब दिखाये स्वप्न उजाले ।

उनके कोरे वादों से क्या , मिट पाये हाथों के छाले ।

टेडे मेडे वादे उनके हमको सरल सुडोल न पाए ।।

माना बेईमान हुए वो , हम भी तो कुछ बोल न पाए ।।4

सच है दौड़ नहीं पाए हम , बाजारू आपा धापी में ।

मंडी में बैठे शातिर ने , झोल किया नापा नापी में ।

जब वो लीन हुए इस मध में , "हलधर" चमड़ी छोल न पाए ।।

माना बेईमान हुए वो ,हम भी तो कुछ बोल न पाए ।।5

- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून