गांधी जी के अनुयायी - विवेक रंजन श्रीवास्तव

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vivratidarpan.com - ये लेखक भी बड़े अजीब किस्म के प्राणी होते हैं, जाने क्यों उन्हें वह सब भी दिखता है, जिसे और लोग देखकर भी नहीं देखते, शहर के मुख्य चौराहे पर गांधी जी की प्रतिमा है, उसके ठीक सामने मूंगफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं, और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर,  लोहे की सलाखों में  बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीशियां सजी हैं, लाइट का डेकोरेशन है, अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर  लगे हैं, दूकान के ऊपर आधा लाल-आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है 'विदेशी शराब की सरकारी दुकान’ । इस बोर्ड को आजादी के बाद से प्रतिवर्ष, नया ठेका मिलते ही, ठेकेदार नये रंग-पेंट से लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है, पर आम नागरिकों को न यह इबारत समझ आती है, न बोर्ड। यह हम जैसे बुद्घिजीवी लेखक टाइप के लोगों को ही दिखता है, दिखता क्या है, गांधी जी के बुत को चिढ़ाता सा चुभता है। यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष जन कल्याण के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, शहर-शहर में फैली ऐसी ही दुकानों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन 'विदेशी शराब की देसी दुकानों, के लिये हैं।  विभाग है, तो मंत्री जी है, जिला अधिकारी है, और इंस्पेक्टर वगैरह भी हैं। शराब के ठेकेदार हैं। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता आदि हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय नगद पर होता है जबकि शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सब्सिडी देकर करने पड़ते हैं। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते हैं। अत: जब कभी चुनाव, होली या गांधी जयंती जैसी तिथियों पर इस दुकान से सारा लेन-देन पिछवाड़े से ब्लैक पर ही हो पाता है, तो यह ठेले वाले अपनी आजीविका के लिये परेशान हो उठते हैं। प्रतिवर्ष होने वाले ठेकों की नीलामी के समय माहौल तनावपूर्ण हो जाता है। किंतु कट्टे-वट्टे चलने के बाद स्थिति नियंत्रण में बनाये रखने हेतु पुलिस कप्तान, जिलाधीश आदि सक्रिय होते हैं। गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी, विदेशी बहिष्कार, जैसी हरकतें करते रहे। आज उनके अनुयायियों ने कितनी विद्वता से हर गांव-हर चौराहे पर, उनके बुत लगवा दिये हैं और सरकारी स्तर पर इतने लाभदायक कार्य कर रहे हैं। कई माननीय मुख्यमंत्री तो आबकारी नीति की सरकारी घोषणा, समीक्षा आदि भी करते रहे हैं और बियर जैसे शीतल  पेय, इसी के तहत अब इन सलाखबंद दुकानों से निकलकर, दूध की दुकानों तक पहुंच रहे हैं। हम प्र्रगति पथ पर अग्रसर हैं। मेरे जैसे जाहिल लोग जिन्होंने प्राय:  सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल ही देखे हैं, ये सरकारी दुकानें देखकर, सरकार के प्रति नतमस्तक हैं। और क्यों न हों? यहां मिलने वाला पेय 'मेड इन इंडिया’ ही होता  है- पर उसे 'विदेशी’  का खिताब वैसे ही मिला हुआ है, जैसे किसी विदेश बहू को हम लोग अपने परिवार में ब्याहकर ठेठ अपनी बना लेते हैं। यह हमारी संस्कृति की विशेषता है। यह हॉट ड्रिंक, कोल्ड करके पिया जाता है। यह भी इसकी अद्भुत विशेषता है। इस पेय को सरकारी संस्कृति संरक्षण स्वाभाविक है, क्योंकि प्रत्येक महत्वपूर्ण फैसले जो दूसरे दिन ऑफस में लिये जाते हैं, की पूर्व संध्या पर 'डिनर पॉलिटिक्स’   में इन बोतलों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इस पेय की क्षमता अद्भुत है, यह आपके सारे गम भुला सकता है। इसके 'जाम’  की दोस्ती, अन्य सारे रिश्ते दरकिनार कर देती है। 'मंदिर-मस्जिद बैर कराते-मेल कराती मधुशाला’  हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के प्याले का मधुरस यही तो है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनीतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है। आइये खुशी में, गम में, नये वर्ष के स्वागत में, जीत में, हार में, पदोन्नति में, सेवानितृत्ति पर या फिर वैसे ही, अपनी इस सरकारी दुकान से, यह विदेशी पेय खरीदकर, इसका रसास्वादन करें और ग्लोबलाइजेशन को महसूस करें। (विनायक फीचर्स)