मेरी कलम से - डॉ. निशा सिंह
Sep 1, 2024, 22:29 IST
| नक़्श-ए-पा देख के कब तक चले कोई आख़िर।
राह बदले जो निशानात बदल जाते हैं।।
दिन थे जो बचपने के सुहाने गुज़र गए।
दादी की लोरियाँ वो फ़साने गुज़र गए।।
कोशिश हज़ार की थी चुरा लूं मैं वक़्त पर।
आए न लौट के जो ज़माने गुज़र गए।।
आजकल चिथडों पर ही वो मरने लगी।
देखा देखी में फैशन है करने लगी।।
झुक गया शीष माँ ,बाप का शर्म से।
जब सुता नग्नता पर उतरने लगी।।
डॉ. निशा सिंह 'नवल' (लखनऊ)