मेरी कलम से - डा० क्षमा कौशिक

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रात गहरी थी अकेली

जागता था चांद,

ऊंघते थे नभ में तारे

मल रहे थे आंख।

ओढ़ तम चादर धरा भी

सो गई थक  हार,

अपलक तकती चकोरी

कर रही मनुहार।

कब मिलोगे यह बता दो

हो रही प्रभात।

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श्रम से ही जीवन में लय है,

लय है तो जीवन मधुमय है,

श्रम से ही जीवन वन नंदन,

वरना तो बस केवल क्रंदन।

- डा० क्षमा कौशिक, देहरादून , उत्तराखंड