पंजाबी साहित्य के आकाश का तारा है डॉ.अमरजीत कौंके - जसप्रीत कौर

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vivratidarpan.com - डॉ.अमरजीत कौंके  पंजाबी साहित्य के आकाश पर ध्रुव तारे की तरह चमकता हुआ नाम है जिसकी रोशनी में पंजाबी साहित्य मालामाल हुआ है। उनकी रचनाएँ प्रेम के सरोकारों को नए दृष्टिकोण से परिभाषित करती हैं। उनकी कविता की विशेषता  है कि यह पाठक से बड़ी ख़ामोशी से हम - कलाम होते  हुए उसकी रूह में उतर जाती है । पंजाबी भाषा में उनका विशेष पाठक वर्ग है। उनकी इन चुनिंदा पंजाबी कविताओं का अनुवाद हिंदी पाठकों को भी अनुभूति करेगा। उनके पास लेखन प्रक्रिया का जो अनुभव है उनकी रचनाओं में वो स्पष्ट देखा जा सकता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है उनकी कविताएँ भी इस यथार्थ को सार्थक करती हैं- यह भावपूर्ण रचनायें संकलन में संकलित कर के गौरवान्वित हूँ।

1 - कविता की ऋतु

 जब भी कविता की ऋतु आई

 तेरी यादों के कितने मौसम

अपने साथ लाई

मैं कविता नहीं

जैसे तुझे ही लिखता हूँ

मेरे पोरों

मेरे नैनों

मेरे लहू में

तेरा अजब-सा नशा चढ़ता है

अजीब सा ख़याल

हैरान करने वाला

पता नहीं कहाँ से हो फूटता है

 तू अचानक से मेरे पास आप बैठती

तेरी नज़र

मेरी कविता का एक-एक शब्द

किसी पारखू की तरह

टनका के देखती

मेरी आँखों में

तेरा मुस्कुराता चेहरा आता

मेरे पास शब्दों की

बारिश करता

और मैं किसी बच्चे की तरह

शब्दों को उठा-उठा कर

पंक्ति में सजाता

कहीं भी हो चाहे

कितने ही दूर

असीम अनंत दूरी पर

परन्तु कविता की ऋतु में

तू सदैव

मेरे पास-पास होती।

2  - कैसे आऊँ

मेरी चेतना

हज़ार टुकड़ों में बँटी पड़ी हैं

मेरी स्मृतियों में

अतीत के कितने ग्रह

उपग्रह के

टुकड़े तैर रहे हैं

मेरे अन्दर

कितने जन्मों की धूल उड़ती

मेरे जंगलों में

कितनी डराती, आकर्षित करतीं

आवाज़े तैरती

मेरे समुन्दर में कितने ज्वार-भाटे

खौलते पानियों का संगीत

मैं चाहता हुआ भी

इन्हीं आवाज़ों

शोर संगीत बवण्डरों से

मुक्त नहीं हो सकता मैं

अपनी यादों की तख़्ती तो

कितनी लकीरों

कटी-बँटी शक्लें

मैं जानता हूँ

पर मेरी दोस्त!

मैं बचपन की कच्ची उम्र से

हज़ार टुकड़ों में बँटा

बिखरा

स्वयं ब्रहमण्ड में बिखरे

अपने टुकड़े

चुनने की कोशिश कर रहा हूँ

मैं पूरे का पूरा

तेरा

सिर्फ़ तेरा बन के

तेरे पास कैसे आऊँ…?

3 - मीलों तक अंधेरा

मैं जिस रोशनी में बैठा हूँ

मुझे यह रोशनी

मेरी नहीं लगती

इस बनावटी जैसी चाँदनी की

कोई भी किरण

पता नहीं क्यों

मेरी रूह में

नहीं जगती

जगमग करता

आँखों को चकाचौंध करता

यह जो चहु-ओर फैला प्रकाश है

अंदर झाँक के देखूं

तो मीलों तक अंधेरा है

कभी जब सोचता हूँ बैठ कर

तो महसूस यूँ होता

कि असल में

अंतर्मन तक फैला

अंधेरा ही मेरा है

मेरे अंदर

अंधेरे में

मुझे सुनता

अक्सर होता विरलाप जैसा

मेरे सपनों को लिपटा

जो संताप जैसा

यह प्रकाश को बना देता

मेरे लिए एक पाप जैसा

 यह जगमगाती रोशनी

यह जो चहु-ओर प्रकाश है

अंदर झाँक के देखूं

तो मीलों तक अंधेरा है...।

4 - उदासी

छू कर नहीं देखा

उसे कभी

पर सदा रहती वह

मेरे नज़दीक - नज़दीक

उसकी परछाईं

सदा दिखती रहती मुझे

आस-पास

जब भी

मैं अपने गिर्द कसा हुआ  वस्त्र

थोड़ा ढीला करता

अपना पत्थर सा शरीर

थोड़ा सा नरम करता

वह अदृश्य सी

मेरे जिस्म में प्रवेश करती

मुझे कहती-

क्यों रहता है दूर मुझसे

क्यों भागता है डर के

मैं तो आदि-काल से तेरे साथ हूँ

मैं तो हमेशा तेरे साथ रहूँगी

वह मेरे जिस्म में फैलती

चलने लगती मेरे अंदर

मेरे भीतर

सोई हुई सुरों को जगाती

अतीत की धूल उठाती

मुझे अजीब संसार में

ले जाती

जहाँ से कितने-कितने दिन

लौटने के लिए

कोई राह न पाता

मैं फिर लौटता आख़िर

वर्तमान के

भूल-भुलैया में खोता

पर उसकी परछाईं

सदा दिखती रहती मुझे

क़रीब-क़रीब

सदा रहती वह

मेरे आस-पास...।

मूल पंजाबी कविता- अमरजीत कौंके

अनुवादक- डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक, लुधियाना , पंजाब