दोहे - डॉ. सत्यवान सौरभ
पीड़ित पीड़ा में रहे, अपराधी हो माफ़।
घिसती टाँगे न्याय बिन, कहाँ मिले इन्साफ।।
न्यायालय में पग घिसे, खिसके तिथियां वार।
केस न्याय का यूं चले, ज्यों लकवे की मार।।
फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल।।
बदले आज मुहावरे, बदल गए सब खेल।
सांप-नेवले कर रहे, आपस में अब मेल।।
झूठों के दरबार में, सच बैठा है मौन।
घेरे घोर उदासियाँ, सुनता उसकी कौन।।
चूस रहे मजलूम को, मिलकर पुलिस-वकील।
हाकिम भी सुनते नहीं, सच की सही अपील।।
फ्रैंड लिस्ट में हैं जुड़े, सबके दोस्त हज़ार।
मगर पड़ोसी से नहीं, पहले जैसा प्यार।।
सौरभ खूब अजीब है, रिश्तों का संसार।
अपने ही लटका रहें, गर्दन पर तलवार।।
अब तो आये रोज ही, टूट रहे परिवार।
फूट-कलह ने खींच दी, आँगन में दीवार।।
कब तक महकेगी यहाँ, ऐसे सदा बहार।
माली ही जब लूटते, कलियों का संसार।।
- डॉ. सत्यवान सौरभ 333, परी वाटिका, कौशल्या भवन,
बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा – 127045,