विजय के लिए दिग्विजय का अंतिम प्रयास - राकेश अचल

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Vivratidarpan.com मध्यप्रदेश- मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कांग्रेस हाई कमान ने अंततोगत्वा 18 वीं लोकसभा के लिए होने वाले आमचुनाव में राजगढ़ संसदीय सीट से प्रत्याशी घोषित कर ही दिया। मुझे नहीं लगता कि ये फैसला दिग्विजय सिंह के मन का होगा,लेकिन वे कांग्रेस के उम्रदराज निष्ठावान सिपाही हैं इसलिए उन्होंने इस फैसले को शिरोधार्य कर ही लिया है। चुनावी राजनीति में मुमकिन है कि ये दिग्विजय सिंह का अंतिम अवसर हो।

पूरे सत्ततर (77 )पार कर चुके दिग्विजय सिंह को बहुत से लोग ' दिग्गी राजा ' कहते है ।  उन्हें ये नाम हमारी बिरादरी के स्वर्गीय बालकवि बैरागी ने दिया था। आज की पीढ़ी के कांग्रेसियों को और मुमकिन है कि हमारे पाठकों को भी शायद पता नहीं हो कि सार्वजनिक जीवन में दिग्विजय सिंह 53 साल पूरे कर चुके है।  एक सामंती परिवार में जन्मे दिग्विजय सिंह ने अपना पहला चुनाव 1971  में राघौगढ़ नगर पालिका के अध्यक्ष पद के लिए लड़ा था वे 1977 में पहली बार चुनाव जीतकर विधानसभा की सीढ़ियां चढ़े थे। इस लिहाज से दिग्विजय आधी सदी का चलता-फिरता इतिहास हैं।

दिग्विजय सिंह को जानते हुए मुझे भी कोई 40 साल तो हो ही चुके है ,इसलिए उनके बारे में लिखने में न मुझे कोई संकोच होता है और न कोई निराशा । दिग्विजय सिंह के भीतर का सामंत  जिन्दा होकर भी मर चुका है। अपने आधी सदी से ज्यादा के जीवन में दिग्विजय चुनाव भी लड़े और अपने विरोधियों से व्यक्तिगत  लड़ाइयां भी । उन्हें अपने आपसे भी लड़ना पड़ा। यही उनकी विशेषता है।

दिग्विजय सिंह के सामने कांग्रेस में बहुत कुछ बदला है,घटा है लेकिन दिग्विजय सिंह नहीं बदले ।दिग्विजय ने राजनीति में अदावतें भी कम नहीं पाली । उनके जितने दोस्त हैं शायद उससे कहीं ज्यादा दुश्मन भी है। अनेक को तो मैं निजी तौर पर जानता हूँ। वैसे तो वे आधा-अधूरा काम नहीं करते ,किन्तु अब मुझे लगता है कि वे अपना अंतिम चुनाव आधे-अधूरे मन से लड़ रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि दिग्विजय जितने सरल हैं उतने ही जटिल भी है। बावजूद इसके उनका अपना वजूद है और उसे कोई चुनौती नहीं दे पाया। उनके ख़ास विरोधी स्वर्गीय माधवराव सिंधिया हों या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया।

दिग्विजय मोदी युग में अपना तीसरा लोकसभा चुनाव जीतेंगे या हारेंगे मै इसकी भविष्यवाणी नहीं करता,क्योंकि ये ज्योतिषियों का काम है, मेरा नहीं। लेकिन मै इतना कह सकता हूँ कि  राजगढ़ से कांग्रेस ने आजादी के बाद से अब तक हुए 17 चुनावों में से 11 चुनाव जीते है।  यहाँ से इस समय भाजपा के रोडमल नागर सांसद हैं। दिग्विजय सिंह इसी सीट से 1984 और 1991 में भी चुनाव जीत चुके है। दिग्विजय के सगे भाई लक्ष्मण सिंह ने भी इसी सीट से चार चुनाव कांग्रेस में रहकर और एक चुनाव भाजपा में रहकर जीता है ,इसलिए कहा जा सकता है कि रोडमल नागर के लिए दिग्विजय सिंह आसान चुनौती नहीं बन पाएंगे,और आज की भाजपा दिग्विजय सिंह को भी आसानी से चुनाव जीतने नहीं देगी।

मध्यप्रदेश की 29 सीटों में से राजगढ़ अकेली ऐसी सीट है जो भाजपा और कांग्रेस के लिए सचमुच प्रतिष्ठा का प्रश्न बनेगी। गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया हालाँकि इस बार सत्तारूढ़ भाजपा के प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने की वजह से सुरक्षित हैं किन्तु जिस तरह से गुना के मौजूदा सांसद  का टिकिट काटा गया है वो भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भारी पड़ सकता है। राजगढ़ से दिग्विजय के चुनाव मैदान में उतरने का लाभ भले ही सिंधिया को मिल जाये क्योंकि दिग्विजय का सारा फ़ौज-फांटा गुना के बजाय राजगढ़ में श्रम करेगा। दिग्विजय राघौगढ़ की आभासी रियासत के आभासी राजा हैं,ठीक उसी तरह जैसे कि आभासी ग्वालियर रियासत के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया है।  दोनों  राज परिवारों के बीच बड़ी पुरानी अदावत भी है। तीन पीढ़ियों से चली आ रही ये अदावत निजी भी है और सियासी भी। आम धारणा है कि  ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 2020 में कांग्रेस की अपनी पांच दशक पुरानी विरासत दिग्विजय सिंह की वजह से ही छोड़कर भाजपा की शरण ली थी ।

बहरहाल राजगढ़ का चुनाव पहले के मुकाबले ज्यादा दिलचस्प होगा,क्योंकि दिग्विजय यहां की जनता से संभवतः अपना अंतिम चुनाव कह कर वोट मांगे। आगे-आगे देखिये होता है क्या ? (विनायक फीचर्स)