ठिठुरती पैरोडी - कर्नल प्रवीण त्रिपाठी

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ऋतु शीत की है आई, तन-मन कँपा रही है।

ऐसी गलन बढ़ी है, हड्डी गला रही है।

थर-थर करें बदन भी, रोएँ खड़े हुए हैं।

सब आँख मूँद कर के, सोए पड़े हुए हैं।

सीने से जोड़ घुटने, बस शीत को भगाएं,

जल्दी नहीं है उठना, जिद पर अड़े हुए हैं।

ठंडी पवन झिरी से, आकर जगा रही है।1

सूरज की गर्म किरणें, बेबस दिखें शरद में।

देतीं कभी दिखाई, छिपतीं कभी जलद में।

शीतल पवन चले कभी तो, अकड़ें बदन सभी के,

लोगो के हाथ अब तो, उठते नहीं मदद में।

खेला लुका-छुपी का, हर दिन दिखा रही है।2

कुहरा दिखे गहन सा, जिस ओर दॄष्टि जाती।

हर एक रश्मि रवि की, बस बेबसी जताती।

अक्षम करे कुहासा, निस्तेज हैं दिवाकर,

चादर धवल तनी यूँ, नव किरण न भेद पाती।

नित शीत की लहर भी, बढ़ती ही जा रही है।3

सालों के बाद सर्दी, तन को कँपा रही है।

छठ दुग्ध की सभी को, यादें दिला रही है।

- कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उतार प्रदेश