ढलान- जया भराड़े

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एक उम्र की सीमा

ऊँचाई से या फिर उसके

अंक से होती है।

दिवाली मे पाया राज जब

बेसन के लड्डू बनाये

अंत मे छोड दे सारा घी

जिंदगी का

तकाजा  मिले फिर सब

छूटे जिंदगी का

अब दिखे बड़ी उम्र सबको

ढलान समय से चलती

मगर वो उम्र तो परिपक्व हो जाती

ता उम्र जो है भाती।

लगे अब सबसे प्यारा

रंगों मे सफेद शांति का ही

सारी जिद्दों मे अब एक ही

जिद सहंशीलता जो भारी

छुट जाता है अहम सारा

खुशियाँ देख दूसरों की

ना कोई.अरमान है सताता

ना तमन्ना कोई रह जाती।

बस. अपनों का साथ ही

सबसे बड़ी स्वर्ग की खुशी

सर्वस्व है बन जाती

ना चैन कही भी मिलता

ना सुकूंन कही दिल को आता

ये दिल तो बस अब

ता उम्र दूसरों की खुशी मे

और दूसरों की दुनिया मे ही

अपना सब कुछ खोकर

ईश्वर की उचाइयों को छू  लेता

समस्याओं से भरा हो जीवन

या  फिर. शरीर साथ न देता।

तब भी ये मन सारे जहाँ की

दौलत पा जाता

शुक्रिया तेरा करूँ मै कैसे भगवान.

हर वक्त तु ही तू और तेरा

ही प्यार मुझ मे  नज़र है आता।

शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया

दिल से तेरा शुक्रिया

हर पल. हर सांस का मै

सदा ही दूँ शुक्रिया।

- जया  भरादे  बदोड़कर

 नवी मुंबई, महाराष्ट्र