चेतना - ममता सिंह

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Vivratidarpan.com- कुछ समय से तीन चीजें बहुत तेजी से घन घना रहीं हैं एक फोन की घंटी दूसरा मंदिर का घंटा तीसरा  व्यस्तता ,  हमें ऐसा लग रहा  है, आप को भी क्या लग रहा है?

पीछे मुड़ कर देखती हूं तो सब था पर इतनी घनघनाहट न थी,व्यस्तता का आलम यह है की खाली व्यस्त है।

फोन तो कमाल है,मंदिर और पूजा की मैं विरोधी नहीं हूं मैं पूर्णतया धार्मिक हूं , लेकिन मार्मिकता को  खोकर  मैं  धार्मिकता की पक्षधर नहीं हूं ,खैर यह मेरा निजी विचार है । पर बात जो लिख रहीं हूं  वह यह है की सुबह समाचार पत्र  में पढ़ी ,हमारे समाज में घटित एक दुर्घटना एक बड़े शहर में दो बच्चे दोनो पढ़े लिखे अच्छे जॉब  में एक ही शहर में ,पर  माँ को दोनो अपने साथ नहीं रख सकते , दोनो के पास अपने अपने कारण हैं,पर क्या इन कारणों के भी कुछ कारण है?

यह वही भारत भूमि है जो वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा रखता है, यह बहुत सोचने वाली बात है ,ख़ास तौर से उनके लिए जो कहते हैं हमने बैल गाड़ी की सवारी  की है अब हवाई जहाज में उड़ रहे हैं,तो हमने तरक्की तो खूब की है  इस तरक्की के पीछे हमारे माता पिता भी रहे होगें जैसे हम जी जान से लगे हैं पर देखना यह है की हम चेतना से जड़ता की ओर कैसे और क्यों?

आज समाचार पत्र में पढ़ा की एक माँ दो बच्चों के होते हुए अकेली रह रहीं थी आर्थिक स्थिति अच्छी थी तो बच्चों ने सहायिका लगवा दी थी  कभी कभी मिलने आ जाते या फोन पे बात कर के अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे थे , सेवा में लगी सहायिका समझ गई अब यह बोझ है , तो  सामान समेटा और माता जी को गला दबा कर खत्म कर दिया किसी पड़ोसी ने देखा  की माता जी कई दिनों से दिख नहीं रहीं हैं तो फोन कर दिया पुलिस को, अब पुलिस अपनी कार्यवाही करती रहेगी इन कहानियों का अंत हैं  ?

- ममता सिंह राठौर, कानपुर, उत्तर प्रदेश