चाय - सुनील गुप्ता

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(1) हो

गर्मी सर्दी या बरसात,

मिले ग़र साथ तुम्हारा, तो बनें बात  !

तुम पूछती अक़्सर हो क्या पियोगे चाय ......,

तो, हम कहते भला कहाँ है इंकार की बात !!

(2) यूँ

तो चाय पीते ही रहते,

पर, साथ पीने का है कुछ अलग ही मजा  !

जब तुम न हों घर पे और बनाएं हम चाय ...,

तो,सच कहते हैं लगता मानो मिली है सजा !!

(3) कैसे

चले गए दिन वह गुजरते,

कि,पता ही ना चला कब ढल आई जीवन साँझ!

और बैठे रहे यहाँ घंटों देखते छत दीवारों को..,

यूँ ही पीते चाय , स्मृतियों में खोए रहे आज !!

(4) बीते

दिनों की बातें करते,

स्मृतियों में उभर आती हैं व्यंग भरी वो बातें  !

जिन्हें चाहकर भी हम यहाँ भूला न पाए..,

और अब इसी बहाने कट जाया करती ये रातें !!

(5) मैंने

देखा ही नहीं कभी,

ऐसा कोई पतझड़ का मौसम न करी परवाह !

रहा बस बना ज़िन्दगी भर तुम्हारा क़द्र-दाँ.,

और सदैव चाहा है तुम्हें प्रिय चाय की तरह !!

सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान