बुरा मानकर भी कर क्या लोगे (व्यंग्य होली) - विवेक रंजन श्रीवास्तव

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vivratidarpan.com - बुरा न मानो होली है कहकर , बुरा मानने लायक कई वारदातें हमारे आपके साथ घट गईं। होली हो ली। सबको अच्छी तरह समझ आ जाना चाहिये कि बुरा मानकर भी हम सिवाय अपने किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। बुरा तो लगता है जब धार्मिक स्थल राजनैतिक फतवे जारी करने के केंद्र बनते दिखते हैं। अच्छा नहीं लगता जब  सप्ताह के दिन विशेष भरी दोपहर पूजा इबादत के लिये इकट्ठे हुये लोग राजनैतिक मंथन करते नजर आते हैं। बुरा लगता है जब सोशल मीडिया की ताकत का उपयोग भोली भीड़ को गुमराह करने में होता दिखता है। बुरा लगता है जब काले कपड़े में लड़कियों को गठरी बनाने की साजिश होती समझ आती है। बुरा लगता है जब भैंस के आगे बीन बजाते रहने पर भी भैंस खड़ी  पगुराती ही रह जाती है।  बुरा लगता है जब मंच से चीख चीख कर भीड़ को वास्तविकता समझाने की हर कोशिश परिणामों में बेकार हो जाती है। इसलिये राग गर्दभ में सुर से सुर मिलाने में ही भलाई है। यही लोकतंत्र है। जो राग गर्दभ में आलाप मिलायेंगे , ताल बैठायेंगे ,  भैया जी ! वे ही नवाजे जायेंगे। जो सही धुन बताने के लिये अपनी ढ़पली का अपना अलग राग बजाने की कोशिश करेंगे , भीड़ उन्हें दरकिनार कर देगी। भीड़ के चेहरे रंगे पुते होते हैं। भीड़ के चेहरों के नाम नहीं होते । भीड़ जिससे भिड़ जाये उसका हारना तय है। लोकतंत्र में भीड़ के पास वोट होते हैं और वोट के बूते ही सत्ता होती है। सत्ता वही करती है जो भीड़ चाहती है। भीड़ सड़क जाम कर सकती है , भीड़ थियेटर में जयकारा लगा सकती है ,  भीड़ मारपीट , गाली गलौज , कुछ भी कर सकती है। फ्री बिजली , फ्री पानी , फ्री राशन और मुफ्तखोरी के लुभावने वादों से भीड़ खरीदना लोकतांत्रिक कला है।  बेरोजगारी भत्ते, मातृत्व भत्ते, कुपोषण भत्ते, उम्रदराज होने पर वरिष्ठता भत्ते जैसे आकर्षक शब्दों के बैनरों से बनी योजनाओ से बिन मेहनत कमाई के जनोन्मुखी कार्यक्रम भीड़ को वोट बैंक बनाये रखते हैं। भीड़ बिकती समझ आती है पर बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! खरीदने बिकने के सिलसिले मन ही मन समझने के लिये होते हैं, बुरा भला मानने के लिये नहीं। खिलाडिय़ों को नीलामी में बड़ी बड़ी कीमतों पर सरे आम खरीद कर , एक रंग की पोषाक की लीग टीमें बनाई जाती हैं। मैच होते हैं, भीड़ का काम बिके हुये खिलाडिय़ों को चीयर करना होता है। चीयर गर्ल्स भीड़ का मनोरंजन करती हैं । भीड़ में शामिल हर चेहरा व्यवस्था की इकाई होता है। ये चेहरे सट्टा लगाते है , हार जीत होती है करोड़ो के वारे न्यारे होते हैं। बुद्धिमान भीड़ को हांकते हैं। जैसे चरवाहा भेड़ों को हांकता है। भीड़ को भेड़ चाल पसंद होती है। भीड़ तालियां पीटकर समर्थन करती है।  काले झंडे दिखाकर, टमाटर फेंककर और हूट करके भीड़ विरोध जताती है। आग लगाकर , तोड़ फोड़ करके भीड़ गुम हो जाती है।  भीड़ को कही गई कड़वी बात भी किसी के लिये व्यक्तिगत नहीं होती। भीड़ उन्मादी होती है। भीड़ के उन्माद को दिशा देने वाला जननायक बन जाता है। भीड़ के कारनामों का बुरा नहीं मानना चाहिये , बल्कि किसी पुरातन संदर्भ से गलत सही तरीके से उसे जोड़कर सही साबित कर देने में ही वाहवाही होती है। भीड़ प्रसन्न तो सब अमन चैन। सो बुरा न मानो, होली है , और जो बुरा मान भी जाओगे तो कुछ कर न सकोगे क्योंकि तुम भीड़ नहीं हो , और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिये भीड़ भाड़ में बने रहो, मन लगा रहेगा। (विभूति फीचर्स)