झुकना - रेखा मित्तल

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उम्र निकल गई झुकते झुकते ,

कभी मां-बाप , कभी भाई-बहन के सामने ।

कुछ बड़ी हुई तो,

कभी घर की लाज ,सम्मान को पूरा करते-करते।

शहनाई बजी, सकुचाती सी पहुंच गई

अनजाने लोगों के बीच।

वहां भी सास ससुर , देवर जेठ,

कभी ननंद के सामने झुकते झुकते।

आज बरसों बाद एहसास हुआ,

कि अपनों के बीच का,

गैप मिटाते मिटाते

आ गया है क्या गैप पीठ के मनको के बीच ।

अब झुकना मना है

परंतु ताउम्र  झुकते झुकते,

आदत सी हो गई है झुकने की

अपने दर्द को सहने की।

यह झुकना ही तो था

जिसने बचाया मेरी

रिश्तो की डोर को

खुद झुककर खुश किया दूसरों को।

- रेखा मित्तल, सेक्टर-43, चंडीगढ़