आजादी के लिए बिगुल बजा दो - अशोक यादव

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मूक-बधिरों सा जीवन है, बैठे मत रहो अंधों की बस्ती में। 
मन समुद्र में लहरें उठ रही, छेद है कागज की कश्ती में।।
भक्ति के नाम पर झाँझ, मंजीरा बजाना शुरू कर दोगे।
अपनी आजादी के लिए घर में ताला लगाकर घुसोगे।। 
बात बनेगी नहीं, और भी बात बिगड़ेगी। 
कोई भी बली, शक्ति तुम्हारी गर्दन पकड़ेगी।।
फिर क्या करोगे? कोई जवाब तो मुझे दो? 
कुछ नहीं बता पा रहे हो, तो बस अब रहने दो? 
मुर्दों का देश में, जिंदा आदमी का कोई काम नहीं है। 
सभी लोग मुर्दा बन जाएँ, सबकी ख्वाहिश यही है।।
यदि सबको जिंदा रहना है, तो मुर्दों को जगाना पड़ेगा। 
गहरी नींद में सोई हुई जनता को उठाना पड़ेगा।। 
सबके दिलों में साहस और उत्साह को भरना होगा। 
एकता होकर सभी को नया सवेरा लाना होगा।।
स्वयं प्रेरित होकर अपनी लड़ाई लड़नी होगी। 
समाज में परिवर्तन की लहर लानी होगी।। 
पहले हम बदलेंगे, तब तो जन-जन में बदलाव होगा। 
बहुत पुराने फोड़े में, अभी भी तो गहरा घाव होगा।। 
कोई दवाई लिए बैठा है, सबके लिए राह में?
लगता है एक दिन तो क्रांति होगी? यही चाह में।। 
तो अब जागो! मातृभूमि तुझे पुकार रही है। 
बेड़ियों में जकड़ी हुई, पराधीन गुहार लगा रही है।। 
भारत माँ के वीर सपूतों, कोई बजा दो रणभेरी बिगुल। 
ताकि सभी स्वतंत्र हो जाएँ, फँसे हैं अभी तक चंगुल।।
- अशोक कुमार यादव मुंगेली, छत्तीसगढ़