बिन गोरी कैसी होरी रे ? (व्यंग्य) - राजेंद्र सिंह गहलोत

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vivratidarpan.com - जब से हिंदी साहित्य में होली के मदमाते वर्णन पढ़े हैं तब से लगता है कि मैंने अपने जिंदगी के साठ साल व्यर्थ गंवा दिये। मित्रों के साथ अभी तक रंग अबीर उड़ा कर व्यर्थ की झकझोरी करके होली जैसे मादक त्यौहार को निपटा दिया। होली पर तो जबतक किसी मदमाती नार से बरजोरी करते हुए उसके गालों पर गुलाल न मला जाये तब तक होली का त्यौहार मन ही नहीं सकता। यह निर्विवाद तथ्य साहित्य के पन्नों से छलक छलक कर इस होली में मेरे मन को पीडि़त कर रहा है। इस तथ्य से यदि आप सहमत नहीं हैं तो पेशे खिदमत है नजीर अकबरावादी का होली पर यह कलाम-
हो नाच रंगी रंगीली परियों का, बैठे हो गुलरु रंग भरे।
कुछ भीगी ताने होली के, कुछ नाजो अदा के ढंग भरे।
दिल भोले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे।
कुछ तबले खड़के रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह जंग भरे।
कुछ घुंघरु ताल छनकते हो, तब देख बहारे होली की। (गुलरू-फूलो जैसे सुंदर मुंख वाले)
चलिये यह मान लिया जाये कि उर्दू के शायर तो होते ही रंगीन मिजाज हैं तो हिंदी में लेखन के अग्रणी भारतेन्दु हरिश्चंद्र की होली पर लिखी इन पंक्तियों पर गौर कीजिये-
फागुन के दिन चार री, गोरी खेल लै होरी।
फिर कित तू और कहां यह औसर क्यों ठानत यह रार।
जोबन रुपी नदी बहती सम यह जिय मांझ बिचार।
'हरिश्चंद्र: गर लगु प्रीतम के करुं होरी त्यौहार  
लीजिये साहब भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने बाकायदा गोरी को होली खेलने का आमंत्रण देते हुए होली का त्यौहार मनाने का शार्टकट नुस्खा बता दिया, गोरी प्रीतम के गले लगी और मन गया होली का त्यौहार। (हॉय! बाल श्वेत हुये, आंखों पर चश्मा चढ़ा। नारियां 'अंकल' और नवयुवतियां 'दादा' कहने लग गयी पर ऐसी रंगीन होली का त्यौहार तो कभी न मना।)
खैर! अगर यह मान लिया जाए कि हर कवि रंगीन मिजाज होता है, चाहे वह उर्दू का हो या हिंदी का, फिर भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने जब यह कविता लिखी अच्छे खासे जवान थे और शायद चढ़ती जवानी के रंग में रंग कर ही यह रंगीन पंक्तियां लिख डाली होंगी। तो ऐसी स्थिति में बूढ़े बाबा सूरदास की बात तो प्रमाणिक मानी ही जा सकती है। लीजिए होली के संबंध में उनकी बातों पर गौर फर्माइये-
ब्रज में हरि होरी मचाई।
इतते आवत सुधर राधिका
उतते कुंवर कन्हाई।
हिलमिल फाग परस्पर खेलें
शोभा बरनि न जाई।
और पद्माकर ने तो एक कदम आगे बढ़ाते हुए कह डाला-
फाग के भीर अभीरन ते गति
गोविंद लै गयो भीतर गोरी।
भारी करी मय की पद्माकर
ऊपर नाते अबीर की झोरी।
छीन पीतांबर कम्मर ते
दई मीठी कपोलन रोरी।
आज के जमाने की तो राम जाने या सिनेमा, दूरदर्शन, इंटरनेट वाले जाने पर, हमारी जवानी के जमाने में अगर इधर से कोई सुधर छोरी और उधर से कोई कैसा भी छोरा निकल कर ऐसी होली मनाने का प्रयास करता तो निश्चय ही तीसरी ओर से छोरी का बाप लट्ठ लिये हुए निकल पड़ता और कहीं पद्माकर की कविता की पंक्तियों में वर्णित हरकत करते हुए वह छोरी गोरी को भीतर ले जाने का प्रयास करते हुए पकड़ा जाता तो अच्छी खासी पिटाई के बाद हवालात में बैठकर होरी गाते हुए नजर आता, और फिर शायद अपनी पूरी जवानी में किसी गोरी क्या किसी काली की तरफ भी नजर उठाने का साहस ना कर पाता। लिहाजा हमने अपनी पूरी जवानी भंग की तरंग में 'कबीरा' गाते हुए गुजार दी, पर कभी भी किसी भी होली में किसी भी नार से रार नहीं ठानी, न किसी से बरजोरी की और ना ही किसी गोरी के कपोलों में रोली ही मलने का साहस ही किया। लेकिन हिंदी साहित्य में जब होली के मदमाते वर्णन पढ़ता हूं, तो बुढ़ापे के पायदानों में लडख़ड़ाता मन ठंडी सांस भरकर कह उठता है-
'हाय! सब रंग बदरंग हुये, उमरिया बीती कोरी।
व्यंग्य लिख लिख ताउम्र करते रहे दंतनिपोरी।
अब तो होली खेलन भेज दे मालिक,
इक नार अलबेली कारी हो या गोरी।।‘  (विभूति फीचर्स)