बड़ी बहन का आशीर्वाद है "यमराज मेरा यार" (संस्मरण)

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Vivratidarpan.com -  आभासी दुनिया में भी रिश्तों के विविध रुपों के दर्शन हो ही जाते हैं। इसका अनुभव लगभग हर उस शख्स को जरूर होगा, जो आभासी दुनिया में रचा बसा होगा। साहित्यिक क्षेत्र के लोगों के लिए तो आभासी दुनिया का अलग ही महत्व है। जहांँ उसके रिश्तों के संसार में जाति, धर्म, क्षेत्र, देश -परदेश, उम्र, महिला, पुरुष की बेड़ियों का कोई बंधन नहीं होता। निश्चित ही हम सभी को आभासी दुनिया ने मिश्रित अनुभव दिए हैं  और होंगे। आमजन - जीवन की तरह आभासी दुनिया में में भी हमें वो सारे अनुभव मिल ही जाते हैं।

ऐसा ही एक सुखद अनुभव मैं आप सभी से साझा कर रहा हूँ। इसे आप किस श्रेणी में शामिल करेंगे, यह मैं आप पर छोड़ता हूँ।

पिछले माह (अगस्त "२०२४) के आखिरी दिनों में प्रयागराज से मातृतुल्य दीदी ( डा. पूर्णिमा पाण्डेय पूर्णा जी) का फोन आया, जो सामान्य दिनों की तरह ही था। क्योंकि दीदी से हमारा आभासी संवाद होता ही रहता है। बड़ी बहन के रूप में उनसे होने वाले संवाद से मुझे केवल आत्मीयता का बोध होता है, बल्कि संबल भी मिलता है। बातचीत के दौरान ही दीदी ने पूछा - भैया। आपकी तो पुस्तक निकली होगी?

मैंने बड़ी साफ़गोई से कहा कि पक्षाघात के कारण अपनी आर्थिक दुश्वारियों के चलते मैं पुस्तक प्रकाशन के बारे में कभी सोच ही नहीं पाया।

दीदी ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा - कोई बात नहीं। चिंता मत करो। आपके पहले संग्रह प्रकाशन की व्यवस्था मैं करती हूँ, मुझे पूरा भरोसा है कि आपकी पुस्तक सफलता की सीढ़ियां जरुर चढ़ेगी।

संकोचवश मैं सिर्फ इतना कह पाया कि मैं क्या कहूँ दीदी ?

उन्होंने मेरे संकोच को महसूस किया और इतना भर कहा - कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं है। बस आप अपनी रचनाएँ मुझे भेजिए। बाकी मैं देखूँगी, कैसे होगा।

उसके बाद पुनः सामान्य औपचारिक अनौपचारिक बातें हुईं।

दीदी के कहने के बाद भी मैं सोच नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूंँ?

चार पाँच दिन बाद दीदी का फिर फोन आया और उन्होंने सबसे पहले यही कहा कि आपने रचनाएंँ नहीं भेजी। इस बात का मैं उत्तर देता भी तो क्या? लेकिन उनसे यह जरूर कहा कि ठीक है मैं भेजता हूँ।

फिर दो दिनों में मैंने उन्हें अपनी रचनाएँ भेज दी। इतना ही नहीं मेरे संग्रह प्रकाशन का काम भी शुरू हो गया और मेरी उम्मीद से काफी पहले "यमराज मेरा यार" लोकरंजन प्रकाशन प्रयागराज से होकर मेरे हाथों में गया। इस तरह एक बड़ी बहन के स्नेह आशीर्वाद का जीता-जागता उदाहरण प्रतिफल के रूप में सामने गया।

एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि पिछले दो सालों से अधिक समय से हम एक-दूसरे से आभासी रिश्तों में जुड़ें हैं, मगर कभी भेंट मुलाकात का अवसर नहीं मिला। बावजूद इसके कभी ऐसा महसूस ही नहीं होता कि हमारे रिश्ते महज आभासी हैं।

इसे ईश्वरीय व्यवस्था का अंग कहें या मेरा सौभाग्य, लेकिन मेरे लिए उनका स्नेह आशीर्वाद पहले दिन से आत्मीयता की चाशनी में लिपटा ही मिला। इसका विश्लेषण आप किस तरह करते हैं, मुझे नहीं पता। लेकिन मैं तो इसे केवल बड़ी बहन की आत्मीयता मान

नतमस्तक हूँ।

वैसे भी मैंने कुछ दिनों पूर्व उनके एकल संग्रह की समीक्षा लिखी और उसे प्रकाशित भी कराया था। उससे वो इतना खुश हुई थी और जिस ढंग से उन्होंने मेरी तारीफों के पुल बाँधे थे, उससे मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया था। इसलिए नहीं कि उन्होंने मेरी तारीफ़ की, बल्कि इसलिए कि उनके शब्दों से मुझे और बेहतर लिखने की प्रेरणा जो मिली। जो मेरे लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।

इस तरह मेरे पहले काव्य संग्रह "यमराज मेरा यार" का प्रकाशन हुआ।जिसके लिए नेपथ्य में रहकर दीदी ने ही सब कुछ किया। निश्चित रूप से इसमें दीदी की ही संपूर्ण भूमिका है। आभार धन्यवाद की औपचारिकता से बचते हुए मैं दीदी के चरणों में नमन करता हूँ और ईश्वर से उनके स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना करता हूँ, साथ ही यह भी चाहता हूँ कि उनका स्नेह, आशीर्वाद, मार्गदर्शन और संबल आजीवन मुझे प्राप्त होता रहे और मेरे सिर पर उनका हाथ हमेशा बना रहे।

- सुधीर श्रीवास्तव, गोण्डा, उत्तर प्रदेश