बरस रे बादर - अशोक यादव

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आसाढ़ म अब करिया बादर ह छागे।

संगवारी खेती-किसानी के दिन आगे।।

मुड़ी उठाके घुरवा के खातू झांकत हे।

बईलागाड़ी ह खलखला के हांसत हे।।

टेटका के लाली देंह हा भूरवा होगे।

मछरी, कोतरी मन नूनबोरवा होगे।।

लेवा के मेचका जपत हे कंठी माला।

मेकरा मन घलो बनाये लगिन जाला।।

घांटी के धुन सुने बर रद्दा हा अगोरथे।

रुख-राई मन पानी दाई ला सउंरथे।।

पड़की-पड़का के छूटे लागिस परान।

सुआ अऊ मैना बिपत के गांवय गान।।

खूंटा म बंधाये गरुवा टोरत हें गेरवा।

कोठा के बछरु भागत हे अब खोरवा।।

झड़ी बबा आगे,तंय कब आबे रे बादर?

आ रे! छा रे! तोला बलावत हे नागर।।

खेत छोले-चांचे सिसयाय मन किसान।

तोर अगोरा म रोटी घलो होगे पिसान।।

गरज रे! बरस रे! धरती के देह ल जुड़ादे।

बारी-कोला,खेत-खलिहान ल हरियादे।।

- अशोक कुमार यादव मुंगेली, छत्तीसगढ़