उनसे ज्यों टकराईं नजरें - अनुराधा पांडेय

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सुध बुध सद्य गवाईं नजरें

अधर की वो छुवन मादक,

बदन की राग मय सिहरन,

गठन उत्तप्त साँसों की,

मिलन की प्रीतमय मदिरा।

तुम्हारे दो अधर प्याले ,

इन्हें कब भूल सकती मैं,

इन्हें मैं नित्य पीती हूँ।

मदन! जब याद करती हूँ।

सरक कर पास तक आना ,

नयन में झाँकते रहना।

निरन्तर सन्दली खुशबू...

तुम्हारा बाँटते रहना।

कभी इन नर्म पलकों को,

अधर से गुदगुदाना भी।

कभी आ कान में हौले ,

तुम्हारा फुसफुसाना भी।

इन्हें मैं नित्य जीती हूँ.….

हृदय आबाद करती हूँ।

मदन !जब याद करती हूँ।

उठाकर गोद में  हमको ,

सताना दौड़ना जी भर।

कभी मृदु चाँद को छत पर,

बुलाना दौड़ना जी भर।

कभी भुज बंध में कसकर,

लबों को छेड़ना जी भर।

हटाना गाल से अलकें,

लटों से खेलना जी भर।

इन्हें आ मूर्त कर फिर से..

यही फरियाद करती हूँ।

मदन! जब याद करती हूँ।

जगत की भ्रान्तिमय समिधा,

महज बेकार लगती है।

अरी ! ये सेज बिन मदने ,

हमें हत ख़ार लगती है।

अगर संग एक पल जी लूँ,

मिले सौ जन्म की खुशियाँ।

तुम्हारे वंद्य चुंबन की ,

अमर है आज तक सुधियाँ

अकेली स्वर्गमय घड़ियाँ....

लगे बरबाद करती हूँ।

मदन ! जब याद करती हूँ।

अधर का वो छुवन मादक,

बदन की रागमय सिहरन।

गठन उत्तप्त साँसों की,

मिलन की प्रीतमय मदिरा।

तुम्हारे दो अधर प्याले,

इन्हें कब भूल सकती मैं,

इन्हें मैं नित्य पीती हूँ।

मदन ! जब याद करती हूँ।

- अनुराधा पांडेय, द्वारिका , दिल्ली